हास्य कलाकार असरानी जयपुर की पहचान थे, रंगमंच से निकल बॉलीवुड में बनाया अलग मुकाम

राजस्थान के जयपुर से निकले असरानी ने मुंबई के फिल्म जगत में अपनी अलग पहचान बनाई। वे सहज और सरल कलाकार थे। कई सालों तक संघर्ष करने के बाद सफलता मिली। उन्होंने कभी हार नहीं मानी।

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Rakesh Kumar Sharma
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Photograph: (the sootr)

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Jaipur. बॉलीवुड के हास्य अभिनेता असरानी का दीपावली पर मुंबई में निधन हो गया। वे जयपुर के थे। उनका जीवन संघर्ष, समर्पण और कला के प्रति गहरी लगन की मिसाल रहा है। मध्यमवर्गीय सिंधी परिवार में जन्मे असरानी का असली नाम गोवर्धन असरानी था।

फिल्म में आने के बाद उनका नाम असरानी रह गया। उनका परिवार विभाजन के बाद पाकिस्तान से जयपुर आकर बसा था। असरानी को बचपन से ही फिल्मों का शौक था और वो एक्टर बनना चाहते थे। फिल्मों में हीरो बनने के लिए वे घर से भागकर मुंबई भाग गए थे।

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मित्रों के बीच चोंच नाम से मशहूर

अभिनय और आवाज के प्रति उनमें गहरी रुचि थी। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा सेंट जेवियर्स स्कूल जयपुर से पूरी की और राजस्थान कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। पढ़ाई के साथ-साथ वे ऑल इंडिया रेडियो जयपुर में वॉयस आर्टिस्ट के रूप में काम करते थे, ताकि अपनी पढ़ाई का खर्च खुद उठा सकें।

असरानी अपने मित्रों के बीच चोंच नाम से मशहूर थे। हर माता-पिता की तरह असरानी के पिता भी चाहते थे कि वो अच्छे से पढ़-लिख कर सरकारी नौकरी करें, लेकिन असरानी तो पहले से ही एक्टर बनने का सपना देख चुके थे। इसकी इजाजत उनके पिता ने उन्हें कभी भी नहीं दी थी।

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दोस्तों ने नाटक करके मुंबई भेजा

पढ़ाई खत्म होने के बाद उन्होंने कई सालों तक बतौर रेडियो आर्टिस्ट काम भी किया था। जब उन्होंने मुंबई जाने का फैसला किया, तो जयपुर में उनके रंगकर्मी दोस्तों ने उनकी मदद के लिए दो नाटक जूलियस सीजर और अब के मोय उबारो किए। नाटकों के टिकट से जो भी थोड़ी-बहुत कमाई हुई, वह असरानी को मुंबई जाने के लिए दे दी गई। बस मौका देखकर एक दिन असरानी अपने घर से भागकर मुंबई जा पहुंचे। 

जयपुर रंगमंच से शुरुआत

असरानी ने अपने अभिनय की शुरुआत जयपुर रंगमंच से की। 1960 से 1962 तक असरानी ने साहित्य कलाभाई ठाकोर से अभिनय की बारीकियां सीखीं। यहीं से उन्होंने निश्चय किया कि अभिनय ही उनका जीवन बनेगा। 1962 में वे बड़े सपनों के साथ मुंबई पहुंचे और फिल्मों में मौके तलाशने लगे। 1963 में मशहूर निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी से मुलाकात के बाद असरानी को सलाह मिली कि वे अभिनय की विधिवत शिक्षा लें। 

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पुणे में फिल्म इंस्टीट्यूट में प्रवेश

इसके बाद उन्होंने 1964 में फिल्म इंस्टीट्यूट, पुणे में प्रवेश लिया। 1966 में अभिनय का कोर्स पूरा किया। यहां उनके अभिनय कौशल ने सभी को प्रभावित किया। 1967 में असरानी ने अपने कॅरियर की शुरुआत गुजराती फिल्म से की, जिसमें उनके साथ नई हीरोइन वहीदा थीं। वरिष्ठ रंगकर्मियों ने बताया कि जयपुर की गलियों से निकले असरानी ने अपनी मेहनत और लगन से बॉलीवुड में एक ऐसा मुकाम बनाया, जो आज भी याद किया जाता है। उनकी कला, सादगी और विनम्रता ने उन्हें न सिर्फ एक सफल कलाकार बनाया, बल्कि सिनेमा की दुनिया में हास्य का चेहरा भी बनाया। 

अपना भी एक दिन फोटो वाला पोस्टर

जयपुर रंगकर्मियों के बीच असरानी का एक किस्सा बहुत चर्चा में रहा है। जयपुर के एमआई रोड पर असरानी अपने दोस्त के साथ साइकिल के आगे डंडे पर बैठ हैंडिल के ऊपर से अपना एक पैर लटकाए मस्ती में बातें करते चले जा रहे थे। तभी उसी रोड पर स्थित एक सरकारी मोटर गैराज, जहां अब गणपति प्लाजा है, वहां पहुंचते ही इशारा करके अपने दोस्त से साइकिल रोकने के लिए कहा था।

साइकिल से उतर सामने लगी एक होर्डिंग के पास जाकर रुक गए थे। इस पर उसी साल रिलीज हुई फिल्म मेहरबान का पोस्टर लगा हुआ था। असरानी ने होर्डिंग की ओर इशारा करके दोस्त से कहा था, इसे देख रहे हो? कभी मेरा भी ऐसा ही पोस्टर लगेगा। दोस्त ने कहा कि हां, भाई तेरा भी जल्दी ही लग जाएगा। चिंता मत कर। 

एक्टिंग टीचर भी बने

कुछ ही महीनों बाद उसी साल उसी होर्डिंग पर फिल्म हरे कांच की चूड़ियां का पोस्टर लगा, जिसमें बिश्वजीत, नैना साहू, शिव कुमार, हेलन और राजेंद्र नाथ जैसे एक्टर्स के साथ ही एक कोने में असरानी की फोटो भी छपी थी। दरअसल असरानी ज्यादा दिनों तक जयपुर में रुक नहीं सके थे और वापस मुंबई आ गए थे। मुंबई में जब काम नहीं मिला तो पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में लौटकर एक्टिंग टीचर बन गए। बाद में काफी संघर्षों के बाद धीरे-धीरे काम मिलना शुरू हुआ। 

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सहज और सरल कलाकार

असरानी एक्टर बन चुके थे और साइकिल चला रहे उनके बचपन के दोस्त मदन शर्मा आगे चलकर एक प्रसिद्ध नाटककार और जयपुर आकाशवाणी में प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बने। जयपुर के कॉमेडियन एकेश पार्थ ने बताया कि मुझे कई बार असरानी साहब के साथ स्टेज शो करने का मौका मिला। असरानी बड़े सहज और सरल कलाकार थे। उनके अंदर जमकर हास्य भरा हुआ था।

इतने बड़े हास्य अभिनेता होने के बाद भी हमेशा सहज सरल थे और नए युवा कलाकारों को हमेशा प्रोत्साहन देते थे। उनकी एक बात हमेशा याद रहेगी। वो बोलते थे कि हास्य अपने भीतर से पैदा करो, उसके लिए आम आदमी से जुड़ो और उसको महसूस करो।

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शोले के जेलर ने दिलाई हास्य पहचान

हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं, हमारे राज में कोई परिंदा पर नहीं मार सकता। फिल्म शोले में जेलर बने असरानी के इस किरदार ने उन्हें जबरदस्त लोकप्रिय बनाया। जयपुर में पढ़ाई के बाद सबको हंसाने मुम्बई की फिल्मी दुनिया में चले गए थे। करीब साढ़े तीन सौ फिल्मों में कॉमेडियन बने।

पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट में दो साल तक का प्रशिक्षण लेने के बाद 1966 में छोटी फिल्म हम कहां जा रहे हैं में कॉलेज स्टूडेंट की भूमिका निभाई। फिल्मों में काम प्राप्त करने के लिए असरानी करीब पांच साल तक मुम्बई में भटकते रहे, लेकिन हार नहीं मानी। 

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एक साथ आठ फिल्मों में काम

इस दौरान असरानी ने फिल्म कांच की चूड़ियां में विश्वजीत के दोस्त त्रिपाठी की भूमिका निभाई। फिल्म इंस्टीट्यूट, पुणे में नौकरी करने के दौरान 1971 में गुड्डी फिल्म में अच्छा प्रदर्शन किया। तब इन्हें एक साथ आठ फिल्मों में काम मिल गया। फिल्म कोशिश में खलनायक की भूमिका निभाई।

तब सभी ने हास्य रोल ही करने की सलाह दी। इस दौरान  1973 में अभिनेत्री मंजू बंसल से विवाह किया। 1975 में शोले फिल्म में अंग्रेजों के जमाने के जेलर वाले किरदार की जमकर तारीफ हुई। दूरदर्शन पर नटखट नारद की भूमिका में भी असरानी आए।

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