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Photograph: (the sootr)
BASTAR. 2007 में हिडमा का नाम पहली बार दक्षिण बस्तर के डीआईजी कमलोचन कश्यप के कानों में पड़ा। उस साल माओवादियों ने दंतेवाड़ा के उरपालमेटा में हमला किया था। जिसमें 23 जवानों की जान चली गई। इस हमले के बाद हिडमा ने माओवादी रैंक में बहुत जल्दी तरक्की की। इसी हमले के बाद हिडमा सुरक्षा बलों के लिए एक सिरदर्द बन गया।
2007 में वह बस्तर के कंपनी नंबर 3 का कमांडर था और 2009 में बटालियन-1 का डिप्टी कमांडर बना। 2010 तक आते-आते उसने बटालियन-1 की कमान अपने हाथों में ले ली।
बटालियन-1 की बढ़ती ताकत और हिडमा की खौफनाक रणनीतियां
हिडमा के नेतृत्व में बटालियन-1 ने सुरक्षा बलों पर कई हमले किए। 2010 में दंतेवाड़ा के चिंतलनार गांव में एक सुरक्षा टीम पर हमले में 76 जवानों की जान चली गई। यह हमला माओवादी इतिहास के सबसे खतरनाक हमलों में से एक था और हिडमा को सुरक्षा बलों की सबसे वांटेड की सूची में ला खड़ा किया।
इन हमलों के बाद हिडमा की ताकत बढ़ी और उसने बस्तर के जंगलों में अपनी पकड़ मजबूत की। वह अपने हमलों में आधुनिक हथियारों का उपयोग करता था। उसकी रणनीतियां काफी चतुराई से बनाई जाती थीं। इस दौरान हिडमा की बटालियन ने 155 से ज्यादा जवानों को मार डाला। उसके द्वारा किए गए हमलों की गिनती 260 से अधिक हो गई।
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पहले 5 प्वाइंट में समझें क्या है पूरा मामला
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हिडमा की खोज में रुकावटें और जंगल की चुनौतियां
सुरक्षा बलों के लिए हिडमा को पकड़ना एक चुनौती बन चुका था। उनके पास हमेशा जानकारी थी कि हिडमा कहां है, लेकिन बस्तर के जंगली इलाके में उसके तक पहुंचने के रास्ते मुश्किल थे।
सुरक्षा अधिकारी बताते हैं कि कई बार ऐसा हुआ, जब हिडमा केवल 20 किलोमीटर दूर था, लेकिन घने जंगल और वहां के प्राकृतिक हालात उसे पकड़ने में रुकावट डालते थे।
यहां तक कि जब सुरक्षा बल उसका पीछा कर रहे थे, तब बस्तर के कुछ गांवों के लोग पटाखे फोड़कर उसकी टीम को सतर्क कर देते थे। इस कारण ऑपरेशन असफल हो जाते थे। हिडमा बार-बार बच निकलता था।
सुरक्षा कैंपों की रणनीति और हिडमा की कमजोरी
2017 में सरकार ने बस्तर के जंगलों में सुरक्षा कैंप स्थापित करने की योजना बनाई। इसने नक्सलियों के साथ संघर्ष की दिशा बदल दी। इससे पहले सुरक्षा बलों के कैंप मुख्यत: सड़क के किनारे थे, लेकिन अब यह जंगल के भीतर बनाए गए।
इस बदलाव ने हिडमा के संगठन को तोड़ा और उसे छोटे समूहों में विभाजित करना पड़ा। बस्तर में सुरक्षा कैंपों के निर्माण के साथ ही माओवादियों का खात्मा होने लगा व नक्सली समर्थन भी कमजोर होने लगा।
इसके बावजूद, हिडमा की बटालियन ने 2021 में टेकलगुड़ेम में 22 जवानों को घात लगाकर मार डाला। यह हमला सुरक्षा बलों के लिए एक बड़ा धक्का था।
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हिडमा का अंत- आखिरकार उसे कैसे पकड़ा गया?
जनवरी 2024 में सुरक्षा बलों ने हिडमा की बटालियन-1 के साथ एक महत्वपूर्ण मुठभेड़ की। इस मुठभेड़ में नक्सलियों को पीछे हटने के लिए मजबूर किया गया, लेकिन तीन जवान शहीद हो गए। हालांकि, यह घटना हिडमा के सफाए की दिशा में अहम साबित हुई।
नवंबर 2025 में आंध्रप्रदेश पुलिस के साथ मुठभेड़ में हिडमा मारा गया। यह हिडमा की खोज का वह अंत था, जिसका इंतजार सुरक्षा बलों को दशकों से था।
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