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ऑपरेशन सिंदूर की सफलता को वैश्विक मंच पर बताने भारत सरकार ने सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों को 33 देशों में भेजा था। इन प्रतिनिधिमंडलों का उद्देश्य पहलगाम आतंकी हमले और इसके जवाब में भारत द्वारा शुरू किए गए ऑपरेशन सिंदूर का समर्थन प्राप्त करना था। साथ ही पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को भी उजागर करना था। तो कैसा रहा हमारे नेताओं का ये दौरा? कितनी सफलता मिली और कैसे विवाद सामने आए?
ऑपरेशन सिंदूर: एक ऐतिहासिक अभियान
भारत में आतंकवाद विरोधी अभियान की शुरुआत एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हुई, जब 22 अप्रैल 2025 को पहलगाम क्षेत्र में एक आतंकी हमला हुआ। इस हमले ने भारत को आतंकवाद के खिलाफ और अधिक निर्णायक कदम उठाने के लिए प्रेरित किया। 7 मई 2025 को भारत ने ऑपरेशन सिंदूर की शुरुआत की।
इसके बाद, भारत सरकार ने इस अभियान को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत करने का निर्णय लिया, ताकि दुनिया को यह बताया जा सके कि भारत आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अकेला नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया के समर्थन की आवश्यकता है।
सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल
भारत सरकार ने सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों को दुनियाभर में भेजने का निर्णय लिया। इन प्रतिनिधिमंडलों में विभिन्न राजनीतिक दलों के 59 सांसद, वरिष्ठ नेता और 8 पूर्व राजनयिक शामिल थे। इन प्रतिनिधिमंडलों का मुख्य उद्देश्य पहलगाम आतंकी हमले और ऑपरेशन सिंदूर के बारे में भारत का पक्ष रखना था।
साथ ही, पाकिस्तान के आतंकवाद को बढ़ावा देने के प्रयासों को उजागर करना था। यह एक ऐतिहासिक कदम था, क्योंकि भारत ने अपनी आंतरिक राजनीति से ऊपर उठकर इस मुद्दे पर राजनीतिक एकजुटता (political unity) दिखायी और राष्ट्रीय सुरक्षा (national security) के मुद्दे पर सभी दलों ने एक स्वर में आवाज उठाई। आइए जानते हैं कौन सा नेता किस देश में गया था...
अमेरिका में शशि थरूर का नेतृत्व
कांग्रेस नेता शशि थरूर के नेतृत्व में एक दल अमेरिका गया, जहां उन्होंने अमेरिकी कांग्रेस के भारत कॉकस और विदेश मामलों की समिति के सदस्यों से मुलाकात की। थरूर ने ऑपरेशन सिंदूर के प्रतीकात्मक महत्व को समझाया और इसके जरिए भारत ने यह संदेश दिया कि यह सिर्फ एक सैन्य अभियान नहीं बल्कि आतंकवाद के खिलाफ भारत का दृढ़ संकल्प है।
इस मुलाकात में, अमेरिकी नेताओं ने भारत के दृष्टिकोण को सराहा और इसे आतंकवाद विरोधी लड़ाई के एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा। शशि थरूर ने अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य रो खन्ना और रिच मैककॉर्मिक से भी चर्चा की, जिन्होंने भारत के आतंकवाद विरोधी रुख का समर्थन किया।
सऊदी अरब, कुवैत, बहरीन और अल्जीरिया का दौरा
बैजयंत पांडा के नेतृत्व में एक दल सऊदी अरब, कुवैत, बहरीन और अल्जीरिया का दौरा किया। इस दल में असदुद्दीन ओवैसी, निशिकांत दुबे और हर्षवर्धन श्रृंगला जैसे प्रमुख नेताओं का समावेश था।
इन मुलाकातों में, दल ने पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ सबूत (evidence) प्रस्तुत किए, और इन देशों ने पाकिस्तान की निंदा (condemnation of Pakistan) की।
2 जून 2025 को यह दल भारत लौट आया, और अपने दौरों के दौरान मिली सकारात्मक प्रतिक्रियाओं को भारत सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया।
दिखी राजनीतिक एकजुटता और समर्थन
ऑपरेशन सिंदूर ने भारतीय राजनीति में अभूतपूर्व एकजुटता को प्रदर्शित किया। सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी दलों ने एक स्वर में भारत के आतंकवाद विरोधी रुख को समर्थन (support) दिया।
इस पहल से यह संदेश गया कि भारत की सुरक्षा और उसकी कूटनीति पार्टी लाइनों से ऊपर है। नेताओं ने इसे राष्ट्रीय हित (national interest) का मुद्दा बताया, न कि किसी राजनीतिक दल का एजेंडा।
सुप्रिया सुले (NCP) ने कहा, "आतंकवाद के खिलाफ हर देश भारत के साथ है," जो इस अभियान की सफलता और राजनीतिक एकजुटता का स्पष्ट उदाहरण है।
विवाद हुए और आलोचनाएं भी मिलीं
मलेशिया में प्रतिक्रिया
मलेशिया में ऑपरेशन सिंदूर के सैन्य पहलुओं को लेकर कुछ सवाल उठाए गए थे, लेकिन समय के साथ मलेशिया के नेताओं ने पहलगाम हमले की निंदा की, और पाकिस्तान के आतंकवाद के समर्थन को भी नकारा किया। यह विवाद अधिकतर एक कूटनीतिक चुनौती (diplomatic challenge) था, जिसे भारत के प्रतिनिधिमंडल ने पूरी सफलता के साथ संभाला।
पाकिस्तान की प्रतिक्रिया
पाकिस्तान ने भारत के इन प्रतिनिधिमंडलों के दौरों को "भारत का प्रचार अभियान" करार दिया और ऑपरेशन सिंदूर को "आक्रामक कार्रवाई" बताया। पाकिस्तान ने यह आरोप (accusations) लगाया कि भारत ने "झूठा नैरेटिव" तैयार किया। हालांकि, भारत ने इन आरोपों का खंडन किया और पाकिस्तान के आतंकवादी शिविरों और खुफिया जानकारी के साथ उसकी भूमिका को उजागर किया, जिससे पाकिस्तान की विश्वसनीयता वैश्विक मंच पर कमजोर हुई।
उधर पाकिस्तान में क्या बदला
भारत-पाकिस्तान सैन्य संघर्ष के बाद पाकिस्तान में सत्ता और सेना की छवि में बड़ा बदलाव देखने को मिला है। संघर्ष से पहले सेना और सरकार की आलोचना हो रही थी, खासकर इमरान खान की पार्टी द्वारा। लेकिन संघर्ष के बाद हालात पलट गए। अब सेना और सरकार को अभूतपूर्व जनसमर्थन मिल रहा है।
बीबीसी न्यूज उर्दू के एडिटर आसिफ़ फ़ारुक़ी के अनुसार, जनता का मूड तेजी से बदला है। पहले जो विरोध था, अब वह समर्थन में बदल गया है। यह परिवर्तन राजनीतिक और सैन्य दृष्टिकोण से एक "विजयी क्षण" माना जा रहा है। महत्वपूर्ण रूप से, सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर को फील्ड मार्शल (Field Marshal) के रूप में प्रमोट किया गया, जो इस बदलाव का प्रतीक माना जा रहा है।
सोशल मीडिया ट्रोलिंग
कुछ प्रमुख नेताओं जैसे शशि थरूर और असदुद्दीन ओवैसी को सोशल मीडिया पर ट्रोल (troll) किया गया। कुछ यूजर्स ने थरूर की अंग्रेजी और ओवैसी के मुस्लिम देशों के दौरे पर सवाल उठाए।
हालांकि, इन नेताओं ने ट्रोलिंग को नजरअंदाज किया और अपने मिशन की सफलता पर ध्यान केंद्रित किया। ओवैसी ने कहा, "राष्ट्रीय सुरक्षा पर कोई समझौता नहीं," जिससे आलोचनाएं शांत हो गईं।
थरूर को लेकर विवाद क्यों
विदेश गए भारत के सात प्रतिनिधिमंडलों में से एक में कांग्रेस नेता शशि थरूर के शामिल होने पर और बाद में उनके बयानों पर कमेंट करने तक कांग्रेस ने इस स्थिति को सही से संभाला या नहीं, इस पर राजनीतिक विशेषज्ञ नीरजा चौधरी कहती हैं, "ये सरकारी प्रतिनिधिमंडल हैं, न कि संसदीय प्रतिनिधिमंडल।
यह गलतफहमी इसलिए हुई क्योंकि संसदीय कार्यमंत्री किरेन रिजिजू ने मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी से बात करके नाम मांगे। उन्होंने चार नाम दिए, जिनमें आनंद शर्मा को छोड़कर तीन नाम हटा दिए और बाकी अन्य को प्रतिनिधिमंडल में शामिल किया।"
कांग्रेस के अंदर बहुत मतभेद हैं
बीबीसी पर प्रकाशित एक इंटरव्यू में नीरजा चौधरी का कहना है, "कांग्रेस मानती है कि ये वो लोग हैं जिनका पार्टी नेतृत्व से मनमुटाव था, जैसे शशि थरूर, जो कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे के खिलाफ खड़े हुए थे, और इससे पार्टी में मतभेद पैदा हुआ।"
वह आगे कहती हैं, "अगर कांग्रेस मानती है कि बीजेपी जानबूझकर यह दिखाना चाह रही थी कि कांग्रेस के अंदर बहुत मतभेद हैं, तो अगर यह सही भी है, तो भी कांग्रेस को स्थिति को समझकर काम करना चाहिए था।"
चौधरी का मानना है, "अनुभवी नेताओं ने यह दिखाया कि ऐसे मामलों में कैसे बातचीत करनी चाहिए। कांग्रेस को क्रेडिट लेने की बजाय, बीजेपी के बयानों में फंसने से बचना चाहिए था। हालांकि, इतने सब के बावजूद, सभी नेता एक ही स्वर में बोले।"
ऑपरेशन सिंदूर को वैश्विक समर्थन
इस अभियान ने ऑपरेशन सिंदूर को वैश्विक समर्थन दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, कुछ छोटे विवाद जैसे मलेशिया में सवाल, पाकिस्तान का प्रचार और सोशल मीडिया ट्रोलिंग सामने आए, लेकिन इनका ऑपरेशन की सफलता पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ा।
सातों प्रतिनिधिमंडलों ने अपने उद्देश्यों को सफलतापूर्वक पूरा किया और भारत की कूटनीतिक ताकत और राजनीतिक एकजुटता को प्रकट किया। इस अभियान ने यह साबित किया कि भारत आतंकवाद के खिलाफ अपने प्रयासों में अकेला नहीं है और वैश्विक समर्थन प्राप्त करने में सक्षम है।
इस अभियान ने भारत के आतंकवाद विरोधी दृष्टिकोण को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया और पाकिस्तान की आतंकवाद समर्थक गतिविधियों को बेनकाब किया। यह ऑपरेशन भारत के लिए एक कूटनीतिक और राजनीतिक सफलता के रूप में साबित हुआ।
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