आरएसएस के 100 सालः 3 प्रतिबंध, फिर भी हर बार मजबूत वापसी, भगवा ध्वज को गुरु मानने वाले संघ की अनसुनी कहानी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का इतिहास 100 साल पुराना है और इसे भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक संरक्षक माना जाता है। इसकी स्थापना 1925 में विजयादशमी के दिन हुई थी। अब तक इसने तीन बड़े प्रतिबंधों का सामना करते हुए मजबूत वापसी की है।

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Photograph: (The Sootr)

अरुण आनंद

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) दुनिया का सबसे बड़ा स्वैच्छिक संगठन है और इसके स्वयंसेवक देश भर में तीन दर्जन से अधिक संगठन चलाते हैं। इसे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का वैचारिक संरक्षक माना जाता है, जो दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है, और वर्तमान में भारत में अपने लगातार दूसरे कार्यकाल का आधा सफर तय कर चुकी है। लगभग दर्जन भर राज्यों में इसकी सरकारें हैं और वह देश की सबसे ताकतवर राजनीतिक पार्टी बन चुकी है, इसके शीर्ष स्तर पर मूलत: संघ से आए कार्यकर्ता ही हैं जिनमें स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं जो संघ में लंबे समय तक पूर्णकालिक कार्यकर्ता अर्थात् प्रचारक के रूप में काम करते रहे।

आरएसएस की स्थापना 1925 में विजयादशमी के शुभ दिन पर हुई थी। आरएसएस हर साल विजयादशमी पर अपना स्थापना दिवस मनाता है, इसी दिन सर संघचालक का वार्षिक उद्बोधन भी होता है जो संघ और इससे प्रेरित अन्य संगठनों के लिए समकालीन संदर्भों में एक मार्गदर्शिका की तरह काम करता है।

RSS 100 years Anniversary : आरएसएस की उम्र 100 साल हो गई है, इस लंबी यात्रा में कई ऐसे पड़ाव आए जिनका स्थायी प्रभाव संघ की दशा और दिशा पर पड़ा, ऐसे कुछ महत्वपूर्ण क्षणों के बारे में हम यहां चर्चा करेंगे:

आरएसएस की स्थापना 1925 में ‘विजयादशमी’ के उत्सव के दिन हुई थी, जिसे ‘दशहरा’ भी कहा जाता है। आरएसएस की स्थापना डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने केवल 15-20 युवाओं के एक छोटे समूह के साथ की थी। इसकी स्थापना के अवसर वहां उपस्थित लोगों में भाऊजी कावरे, अन्ना सोहनी, विश्वनाथराव केलकर, बालाजी हुद्दर और बापूराव भेड़ी शामिल थे जिन्होंने प्रारंभिक वर्षों में संघ के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई।

दैनिक शाखा है मूल आधार

आरएसएस की कार्यशैली का मूल आधार दैनिक शाखा है। लगभग एक घंटे के समय के लिए तय समय व स्थान पर लोग एकत्र होते हैं तथा शारीरिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक विकास से संबंधित गतिविधियों व कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हैं।

पहली ऐसी दैनिक ‘शाखा’ वास्तव में 28 मई 1926 से शुरू हुई, जिसका एक नियमित कार्यक्रम था। जिस स्थान पर आरएसएस पहली शाखा आरंभ हुई थी, वह नागपुर का मोहितेबाड़ा मैदान था, जो वर्तमान में आरएसएस मुख्यालय परिसर का हिस्सा है। वर्तमान में संघ की 60,000 से अधिक दैनिक शाखाएं हैं।

आरएसएस को अपना वर्तमान नाम इसकी स्थापना के लगभग छह महीने बाद मिला। 17 अप्रैल 1926 को डॉ. हेडगेवार ने अपने घर पर एक बैठक बुलाई जिसमें 26 स्वयं सेवकों ने भाग लिया। उस संगठन का नाम तय करने के लिए एक विस्तृत चर्चा हुई। कई नाम सुझाए गए और अंत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम सर्वसम्मति से तय किया गया।

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भगवा ध्वज को माना जाता है गुरु

‘भगवा ध्वज’ को संघ में ‘गुरु’ माना जाता है। जब आरएसएस की शुरुआत हुई, तो कई स्वयंसेवक चाहते थे कि इसके संस्थापक डॉ. हेडगेवार को ‘गुरु’ के रूप में नामित किया जाए, क्योंकि हर स्वयंसेवक उन्हें एक आदर्श के रूप में देखता था। लेकिन डॉ. हेडगेवार ने तय किया कि किसी व्यक्ति में कमियां आ सकती हैं इसलिए भारतीय शाश्वत परंपरा में त्याग, शौर्य, यज्ञ की अग्नि के प्रतीक भगवा ध्वज को ‘गुरु’ के स्थान पर विराजमान होना चाहिए।

हर साल व्यास पूर्णिमा के दिन भगवा ध्वज की विधिवत पूजा की जाती है। इसे ‘गुरुपूजा’ के रूप में जाना जाता है और यह उन छह मुख्य त्योहारों में से एक है जिसे आरएसएस हर साल मनाता है। आरएसएस में पहली ‘गुरुपूजा’ 1928 में आयोजित किया गया था जब ‘भगवा ध्वज’ को औपचारिक रूप से पहली बार ‘गुरु’ के रूप में पूजा की गई थी। तब से, इस परंपरा में कोई रुकावट नहीं आई है और भगवा ध्वज आरएसएस के पदानुक्रम में सर्वोच्च स्थान पर है। प्रत्येक दैनिक शाखा पर प्रतिदिन भगवा ध्वज जाता है।

प्रचारक हैं संघ की रीढ़

‘प्रचारक’ या पूर्णकालिक कार्यकर्ता आरएसएस के संगठनात्मक ढांचे की रीढ़ हैं। प्रचारकों के पहले जत्थे में दादाराव परमार्थ, बाबासाहेब आप्टे, रामभाऊ जामगड़े और गोपालराव यरकुंटवार शामिल थे। 1932 के उत्तरार्ध में, वे आरएसएस के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए और उन्हें आरएसएस के काम को आगे बढ़ाने के लिए महाराष्ट्र राज्य के विभिन्न हिस्सों में भेजा किया गया। आज आरएसएस के 4,000 से अधिक प्रचारक हैं जो देश भर में काम करते हैं।

प्रतिबद्ध व समर्पित स्वयंसेवकों के निर्माण के लिए संघ में कई प्रकार के प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं। संघ में इन्हें ‘अभ्यास वर्ग’ या संघ शिक्षा वर्ग के नाम से जाना जाता है। संघ का पहला बड़ा प्रशिक्षण शिविर 1929 में नागपुर में आयोजित किया गया था। यह 1 मई से 10 जून तक 40 दिनों के लिए आयोजित किया गया था। प्रारंभ में, इन शिविरों को ‘ग्रीष्मकालीन शिविर’ कहा जाता था, क्योंकि ये गर्मी की छुट्टियों के दौरान आयोजित किए जाते थे। इन शिविरों के लिए 1950 के बाद ‘संघ शिक्षा वर्ग’ नाम का इस्तेमाल किया गया।

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1939 में तैयार हुई थी प्रार्थना

नागपुर से करीब 50 किमी दूर सिंदी नामक स्थान पर फरवरी 1939 में आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व की एक महत्वपूर्ण बैठक बुलाई गई थी। इसका आयोजन संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी नानासाहेब तलातुले के आवास पर किया गया था। आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार, माधव सदाशिव गोलवलकर, जिन्हें ‘गुरुजी’ के नाम से जाना जाता है, बाला साहेब देवरस, अप्पाजी जोशी, विट्ठलराव पाटकी, तलातुले, तात्याराव तेलंग, बाबाजी सालोदकर और कृष्णराव मोहरिल ने बैठक में भाग लिया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बैठक में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए, जिनका आरएसएस के कामकाज के तरीके पर लंबे समय तक प्रभाव पड़ा। इन फैसलों का आरएसएस की संरचना पर एक निश्चित प्रभाव पड़ा। इस बैठक में संघ की प्रार्थना तैयार की गई तथा यह तय किया गया कि अब से मराठी या अंग्रेजी में नहीं बल्कि संघ शाखाओं पर संस्कृत में दिशा-निर्देश दिए जाएंगे। संघ में तब से अभी तक वहीं प्रार्थना चली आ रही है। सार्वजनिक रूप से इस प्रार्थना का वाचन पहली बार इस बैठक के बाद पुणे के एक एक शिविर में डॉ. हेडगेवार तथा गुरूजी की उपस्थिति में किया गया था।

गोलवलकर की प्रेरणा से अस्तित्व में आया था जनसंघ 

1940 में आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार का निधन हो गया और एम.एस. गोलवलकर ने आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक के रूप में पदभार संभाला। उन्होंने अगले 33 साल के कार्यकाल में एक छोटे संगठन को अखिल भारतीय संगठन में बदल दिया। उनके कार्यकाल के दौरान अधिकांश आरएसएस से प्रेरित संगठन अस्तित्व में आए, जिन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में अपनी पहुंच का विस्तार किया। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण संगठनों में में से एक था- भारतीय जनसंघ - जिसे आप भाजपा का पूर्ववर्ती संगठन कह सकते हैं। इसकी स्थापना 1952 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी।

1974 में, आरएसएस के तीसरे सरसंघचालक बालसाहेब देवरस ने वसंत व्ययाख्यानमाला में अपने उद्बोधन में घोषणा की, ‘अगर अस्पृश्यता गलत नहीं है, तो दुनिया में कुछ भी गलत नहीं है।’ इसने संघ द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त करने तथा सामाजिक समरसता स्थापित करने के बड़े पैमाने पर प्रयासों की शुरूआत की। इसका परिणाम यह हुआ कि संघ ने समाज सेवा के क्षेत्र में व्यापक कार्य करने का निर्णय लिया। परिणाम यह है कि वर्तमान में आरएसएस के स्वयंसेवक विभिन्न संगगठनों के बैनर तले देश भर में करीब दो लाख सेवा परियोजनाएं चला रहे हैं।

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रामजन्मभूमि आंदोलन में संघ की भूमिका

1983 में, आरएसएस ने रामजन्मभूमि आंदोलन में कदम रखा। संघ से प्ररित विश्व हिंदू परिषद ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। अंततः 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की शुरुआत के साथ आंदोलन की परिणति हुई। इस आंदोलन ने राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में हिंदुत्व को स्थापित किया।

100 सालों में तीन बार लगा संघ पर प्रतिबंध

आरएसएस के 100 सालः पिछले 100 वर्षों में, आरएसएस पर तीन बार प्रतिबंध लगाया गया है - 1948, 1975 और 1992 में। 1948 में, महात्मा गांधी की हत्या के बाद संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, 1975 में इसे आपातकाल के दौरान प्रतिबंधित कर दिया गया था और 1992 में इसे बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद प्रतिबंधित कर दिया गया था। तीनों बार, कुछ ही समय में प्रतिबंध हटा लिया गया और आरएसएस को उस पर लगाए गए झूठे आरोपों से मुक्त कर दिया गया।

हर प्रतिबंध के बाद संघ ने पहले से अधिक मजबूती से वापसी की। 1949 में प्रतिबंध हटने के बाद आरएसएस ने अपने संविधान का मसौदा तैयार किया। 1975-77 के दौरान, आरएसएस ने लोकतंत्र को बहाल करने के लिए एक भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व किया और इसकी भूमिका को विश्व स्तर पर मान्यता मिली।

नई दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय सम्मेलन (17-19 सितंबर, 2018) को छठे सरसंघचालक मोहन भागवत ने संबोधित किया। जहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 21वीं सदी के लिए आरएसएस के रोडमैप का खुलासा किया और आरएसएस की विश्वदृष्टि को प्रस्तुत किया। यह अपने प्रकार का पहला आयोजन था जहां समाज जीवन के हर क्षेत्र से जुड़े ऐसे लोगों तक संघ पहुंचा जो अभी स्वयंसेवक नहीं बने और संघ के संबंध में कई भ्रांतियों का निरराकरण किया।

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(लेखक आरएसएस से जुड़े थिंक-टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं, व्यक्त विचार निजी हैं)

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