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Photograph: (THESOOTR)
नाटो महासचिव मार्क रूट ने भारत, चीन और ब्राजील को चेतावनी दी है। उन्होंने कहा कि इन देशों पर 100% सेकेंडरी टैरिफ लगाया जा सकता है यदि वे रूस से व्यापार जारी रखते हैं। रूट का कहना है कि इन देशों को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पर शांति वार्ता के लिए दबाव डालना चाहिए। यह बयान अमेरिकी सीनेटरों से मुलाकात के बाद दिया गया।
रूस ने कहा, नीतियों में कोई बदलाव नहीं
रूस ने नाटो की धमकी को खारिज किया और कहा कि वह अपनी नीतियों में कोई बदलाव नहीं करेगा। रूस के उप विदेश मंत्री सर्गेई रियाबकोव ने कहा कि अमेरिका और नाटो के अल्टीमेटम रूस के लिए स्वीकार्य नहीं हैं। रूस यह भी मानता है कि वह अपने व्यापारिक रास्तों पर पुनः विचार करके वैकल्पिक विकल्पों का अनुसरण करेगा।
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ट्रम्प का 100% टैरिफ लगाने का प्रस्ताव
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने हाल ही में रूस पर 100% सेकेंडरी टैरिफ लगाने की धमकी दी थी। उनका कहना था कि अगर रूस ने 50 दिनों के भीतर यूक्रेन के साथ शांति समझौता नहीं किया, तो उस पर 100% टैरिफ लगाए जाएंगे। ट्रम्प का यह बयान पूरी दुनिया में एक बड़ा संदेश भेजने के रूप में देखा गया है, क्योंकि रूस से तेल खरीदने वाले देशों पर भी प्रतिकूल असर हो सकता है।
सेकेंडरी प्रतिबंध क्या होते हैं?
सेकेंडरी प्रतिबंध उन देशों या कंपनियों पर लगाए जाते हैं जो किसी प्रतिबंधित देश के साथ व्यापार करते हैं। हालांकि वे खुद उस प्रतिबंधित देश में शामिल नहीं होते। उदाहरण के लिए, अगर भारत ईरान से तेल खरीदता है और अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगाया है, तो भारत पर भी अमेरिका द्वारा आर्थिक दबाव डाला जा सकता है। इसका प्रमुख उद्देश्य उन देशों को व्यापार में बदलाव के लिए मजबूर करना है, जो किसी ऐसे देश के साथ व्यापार कर रहे हैं जिसे आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ रहा है।
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भारत पर सेकेंडरी प्रतिबंध का असर
भारत, रूस से तेल का एक बड़ा खरीदार है। यदि सेकेंडरी प्रतिबंध लागू होते हैं, तो भारत की ऊर्जा आपूर्ति पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। इसके कारण, भारत को अन्य महंगे स्रोतों से तेल खरीदने की आवश्यकता हो सकती है, जिससे ईंधन की कीमतें बढ़ सकती हैं। इसके अलावा, अगर भारत रूस से व्यापार जारी रखता है, तो अमेरिका भारतीय कंपनियों और बैंकों पर प्रतिबंध लगा सकता है, जिससे वित्तीय लेनदेन और निर्यात प्रभावित हो सकते हैं।
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क्या है नाटो और उसके कार्य...
नाटो | विवरण |
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सोवियत संघ के खिलाफ नाटो का गठन | सोवियत संघ ने 1948 में बर्लिन पर कड़ा किया था, तो पश्चिमी यूरोपीय देशों में डर फैल गया। इन देशों की सुरक्षा के लिए अमेरिका के नेतृत्व में नाटो का गठन किया गया। |
नाटो का उद्देश्य | नाटो का उद्देश्य पश्चिमी यूरोप में सोवियत संघ की विस्तारवादी नीति को रोकना था। यह संगठन सदस्य देशों के बीच सुरक्षा और सहयोग बढ़ाने के लिए कार्य करता है। |
नाटो का इतिहास | कनाडा, अमेरिका और कई पश्चिमी यूरोपीय देशों ने मिलकर 4 अप्रैल 1949 को अमेरिका के वाशिंगटन में नाटो की स्थापना की। इसका उद्देश्य सामूहिक सुरक्षा और एकजुटता बनाए रखना था। |
नाटो के सदस्य देशों की संख्या | नाटो के सदस्य देशों की संख्या 30 है। भारत इसका सदस्य नहीं है। |
नाटो का मुख्यालय | नाटो का मुख्यालय बेल्जियम के ब्रुसेल्स में स्थित है। वर्तमान में 30 देश इसके सदस्य हैं। |
नाटो की भूमिका और कार्य | नाटो सदस्य देशों की स्वतंत्रता और सुरक्षा बनाए रखने के लिए सामूहिक रक्षा का कार्य करता है। यह संगठन आर्थिक और सामाजिक रूप से भी सदस्य देशों की मदद करता है। |
नाटो का सामूहिक रक्षा सिद्धांत | नाटो का सिद्धांत है कि किसी भी सदस्य देश पर हमला करने को पूरे संगठन पर हमला मान लिया जाता है। यह सदस्य देशों की सुरक्षा का सुनिश्चित करता है। |
नाटो का वैश्विक प्रभाव | नाटो का दुनिया के कुल सैन्य खर्च में लगभग 70% हिस्सा है, और अमेरिका इसका सबसे बड़ा योगदानकर्ता है। |
भारत और नाटो | भारत वर्तमान में नाटो का सदस्य नहीं है, लेकिन इसके सहयोगी देशों के साथ मजबूत कूटनीतिक और व्यापारिक संबंध हैं। |
भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर असर
रूस से तेल की आपूर्ति में बाधा आने से भारत की ऊर्जा सुरक्षा को भी खतरा हो सकता है। रूस से तेल खरीदने पर प्रतिबंध लगने से भारत को अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए वैकल्पिक स्रोतों से तेल खरीदना पड़ सकता है, जो महंगा हो सकता है और आम जनता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। इसके अलावा, वैश्विक तेल बाजार पहले से ही अस्थिर है, और इस स्थिति में नाटो द्वारा लगाए गए प्रतिबंध भारत के लिए एक नई चुनौती बन सकते हैं।
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अंतरराष्ट्रीय दबाव और भारत की विदेश नीति
भारत को अब अमेरिकी और नाटो के बढ़ते दबाव का सामना करना पड़ सकता है, जिससे उसकी विदेश नीति में संतुलन बनाए रखना और भी कठिन हो जाएगा। भारत को रूस और पश्चिमी देशों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश करनी पड़ेगी, जो एक बड़ी कूटनीतिक चुनौती हो सकती है। इससे भारत के वैश्विक संबंधों पर भी असर पड़ सकता है।
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