News Strike : BJP4MP ने बनाई नई टोली, समन्वय मजबूत करने वाले समूह से ग्वालियर-चंबल का सफाया क्यों?

News Strike : बीजेपी ने मध्यप्रदेश में सत्ता और संगठन के बीच समन्वय सुधारने के लिए एक नई टोली बनाई है, जिसमें ग्वालियर-चंबल के किसी नेता को शामिल नहीं किया गया। इस क्षेत्र में लंबे समय से गुटबाजी और टकराव हैं।

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Harish Divekar
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Photograph: (thesootr)

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NEWS STRIKE ( न्यूज स्ट्राइक ) : बीजेपी में सत्ता और संगठन के बीच समन्वय एक बड़ी चुनौती बन चुका है। आए दिन किसी न किसी जगह से नेताओं में आपसी टकराव की खबर आ ही जाती है।

बीजेपी मध्यप्रदेश ने इसका बड़ा देसी सा हल निकाला है। समन्वय बनाने की जिम्मेदारी अब पार्टी में एक खास टोली संभालेंगी, लेकिन हैरानी की बात ये है कि इस टोली में ग्वालियर चंबल के किसी नेता को ही जगह नहीं मिली। जबकि इस अंचल के हर एक जिले में समन्वय का बुरा हाल है फिर भी टोली से इस अंचल का सूपड़ा साफ है।

गुटबाजी से निपटने का तरीका

सत्ता और संगठन में तालमेल बनाए रखने के लिए बीजेपी पूरी ताकत लगा रही है। बीजेपी में प्रदेशाध्यक्ष भी नए हैं और सीएम भी। यानी सत्ता और संगठन दोनों का ही चेहरा बिलकुल नया है। जबकि गुटों में बंटते नेता और उनके समर्थकों का मुद्दा बहुत पुराना है।

अब बीजेपी की नई टीम ने ग्वालियर-चंबल गुटबाजी से निपटने का नया तरीका निकाला है इसके चलते समन्वय टोली बनाई गई है। जिसमें पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता हैं जो समन्वय बनाने की पहल करेंगे। 

इस टोली में सीएम मोहन यादव, बीजेपी के राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री शिवप्रकाश, बीजेपी अध्यक्ष हेमंत खंडेलवाल, डिप्टी सीएम राजेंद्र शुक्ल और जगदीश देवड़ा सहित प्रहलाद पटेल, कैलाश विजयवर्गीय, राकेश सिंह और संगठन महामंत्री हितानंद भी शामिल हैं। वरिष्ठ नेताओं की इस छोटी सी टोली ने मध्यभारत अंचल, विंध्य, मालवा, महाकोशल का जिम्मा संभाला है।

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पुरानी भाजपा-महाराज भाजपा का जुमला 

दिलचस्प कहें या चौंकाने वाली बात कहें इस टोली में ग्वालियर चंबल का एक भी नेता नहीं है। न ही टोली के किसी सदस्य को ग्वालियर चंबल में समन्वय बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इसकी आखिर क्या वजह हो सकती है। क्योंकि ये बात किसी राजनीतिक शख्स या राजनीति के जानकार से छुपी नहीं है कि बीजेपी में सबसे ज्यादा गुटबाजी या कलह ग्वालियर चंबल में ही तकरीबन हर जिले में नेता एक दूसरे के आमने-सामने हैं।

दलबदल के बाद से यहां पुरानी भाजपा और महाराज भाजपा का जुमला भी खूब उछला था। हालांकि, अंचल के दिग्गज नेताओं ने ये जाहिर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि वो साथ-साथ हैं, लेकिन साथ चलते हुए भी दूरियां साफ नजर आईं।

मसलन आप ज्योतिरादित्य सिंधिया और नरेंद्र सिंह तोमर को ही ले लीजिए। 2020 तक दोनों के एक दूसरे के खिलाफ राजनीति करते थे। दल बदल के बाद दोनों एक दल में तो आ गए, लेकिन राजनीतिक तौर पर दिल नहीं मिले। ऐसे कार्यक्रमों की लंबी फेहरिस्त निकाली जा सकती है जिसमें एक आया तो दूसरे ने दूरी बना ली। ये दोनों राष्ट्रीय कद के नेता हैं। ग्वालियर चंबल में भी दोनों कद काफी बड़ा है।

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सिंधिया और भारत सिंह के बीच मनमुटाव

सिंधिया और ग्वालियर के मौजूदा सांसद भारत सिंह कुशवाहा के बीच भी सब कुछ ठीक नहीं है। हाल ही में ग्वालियर कलेक्ट्रेट में विकास कार्यों पर एक बैठक हुई। सिंधिया भी इस बैठक में आए। मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर और नारायण सिंह कुशवाहा भी बैठक का हिस्सा बने, लेकिन भारत सिंह कुशवाहा नहीं आए। उनकी गैर मौजूदगी को सिंधिया से मन मुटाव के रूप में देखा गया। 

इस बैठक से दो ही दिन पहले सिंधिया ने मुरैना में भी एक कार्यक्रम किया। जिसे उनके शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा गया। जबकि मुरैना साफ तौर पर नरेंद्र सिंह तोमर का ही गढ़ मान जाता है। ग्वालियर के विकास को लेकर मंत्री भी कैबिनेट की बैठकों में सवाल उठाते रहे हैं।

इस बीच सीएम मोहन यादव भी अशोक नगर दौरे पर गए थे। वहां केपी यादव के पिता की मूर्ति के लोकार्पण के बहाने दोनों का साथ दिखाना भी सियासी सुर्खियों में छाया रहा। केपी यादव वैसे भी सिंधिया के विरोधी माने जाते हैं। 

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रावत की हार, बड़े नेताओं की गुटबाजी

बात करें दतिया की, तो यहां भी नरोत्तम मिश्रा अलग थलग पड़े हुए हैं। शिवपुरी से प्रीतम लोधी अक्सर अपने बयान से पार्टी की मुश्किलें बढ़ा ही देते हैं। गुना में सिंधिया और दिग्विजय सिंह की नजदीकियां बढ़ने की खबरें वैसे ही जोरों पर है। 

राम निवास रावत की विजयपुर से हार भी बड़े नेताओं के बीच की गुटबाजी को नुमाया करती है। कांग्रेस से बीजेपी में आए राम निवास रावत को जिताने के लिए नरेंद्र सिंह तोमर ने खासा जोर लगाया था। उन्हें मनाने के लिए पार्टी चुनाव से पहले ही वन मंत्री का पद भी सौंप दिया था। पर, कहा जाता है कि सिंधिया उनके खिलाफ थे।

सिंधिया की नाराजगी की खबरें भी मीडिया में आईं थीं। जब उन्होंने उपचुनाव में उन्हें न बुलाए जाने का मुद्दा उठाया था। ये मामला इतना बढ़ा था कि खुद बीएल संतोष को बीच बचाव करना पड़ा था। माना जाता है कि इसी गुटबाजी के चलते सारी कोशिशों के बावजूद रावत जीत नहीं पाए। इसके बाद वो न कांग्रेस के विधायक रहे न बीजेपी के मंत्री। 

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क्या सिंधिया-तोमर संगठन से भी हो गए बड़े?  

ये सारी घटनाएं ये बताने के लिए काफी हैं कि ग्वालियर चंबल में बीजेपी गले-गले तक कलह और फूट में डूबी हुई है। उसके बाद भी दिग्गजों की टोली इस ओर ध्यान नहीं देना चाहती। इसके क्या मायने हो सकते हैं। 

क्या ग्वालियर चंबल के नेता खासतौर से सिंधिया और तोमर इतने बड़े हो चुके हैं कि सत्ता संगठन के वरिष्ठ नेता भी इस मामले में खामोश है। ये इस बात का इशारा भी हो सकता है कि इस कलह को मिटाने की जिम्मेदारी अब आलाकमान के लेवल पर ही सुलझाई जाएगी। फिलहाल ऐसा लगता है कि टोली ने इस सिरदर्द से बचना ही मुनासिब समझा है।

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