छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म का 157 साल का सफर, 4 लोगों से 6 लाख हुई आबादी, जर्मन मिशनरी ने बदली तस्वीर

छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म की कहानी 157 साल पुरानी है, जिसकी शुरुआत जर्मन मिशनरी रेवरेंड फादर ऑस्कर टी. लोर ने की थी। आज यह समुदाय राज्य में लगभग 6 लाख की आबादी तक फैल चुका है। हाल के दिनों में धर्मांतरण को लेकर हिंदू और ईसाई समुदायों के बीच तनाव बढ़ गया है।

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Krishna Kumar Sikander
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157 years of Christianity in Chhattisgarh the sootr
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छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म के विस्तार की कहानी 157 साल पुरानी है, जो जर्मन मिशनरी रेवरेंड फादर ऑस्कर टी. लोर की मेहनत और दृढ़ संकल्प से शुरू हुई। आज यह समुदाय करीब 6 लाख की आबादी के साथ राज्य के कोने-कोने में फैल चुका है। लेकिन हाल के दिनों में धर्मांतरण को लेकर हिंदू और ईसाई समुदायों के बीच तनाव बढ़ा है।

25 जुलाई 2025 को दो मिशनरी सिस्टर्स की गिरफ्तारी और 28 जुलाई 2025 को कांकेर में एक ईसाई व्यक्ति के शव को दफनाने पर हुए बवाल ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया। दिल्ली से सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल दुर्ग जेल पहुंचा। कांकेर जिले में भीड़ ने चर्च और घरों में तोड़फोड़ की और एक कब्र को खोदकर शव निकाल लिया। आइए जानते हैं कि कैसे एक जर्मन ने छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म की नींव रखी और कैसे यह समुदाय 4 लोगों से लाखों तक पहुंचा।

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बलौदाबाजार के विश्रामपुर में पहला चर्च

छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म की शुरुआत 1868 में बलौदाबाजार के विश्रामपुर गांव से हुई, जहां जर्मन मिशनरी ऑस्कर टी. लोर ने इम्मानुएल चर्च की स्थापना की, जिसे ‘सिटी ऑफ रेस्ट’ के नाम से जाना जाता है। यह छत्तीसगढ़ का पहला चर्च था, जिसके साथ एक कब्रिस्तान भी बनाया गया। लोर का जन्म 28 मार्च 1824 को जर्मनी में हुआ था।

उनके पिता एक सर्जन थे, और उन्होंने ऑस्कर को मेडिकल की पढ़ाई के लिए पहले जर्मनी और फिर रूस भेजा। रूस में रहते हुए लोर को लगा कि उनकी जिंदगी का मकसद परमात्मा की सेवा है। लोर ने बर्लिन की गॉसनर मिशनरी सोसाइटी जॉइन की और 1850 में रांची पहुंचे। वहां उन्होंने हिंदी सीखी, लोगों का इलाज किया और उनकी सेवा की।

1857 में वे अमेरिका चले गए, लेकिन 1868 में अपनी पत्नी और दो बेटों जूलियस और थियोडोर के साथ भारत लौटे। उन्होंने विश्रामपुर को अपनी मिशनरी का केंद्र बनाया और यहीं से ईसाई धर्म का प्रचार शुरू किया।

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विश्रामपुर 100% ईसाई आबादी वाला गांव

विश्रामपुर गांव की आबादी करीब 2,000 है और यह ईसाई समुदाय का गढ़ है। गांव के हर घर में ईसाई चिन्ह क्रॉस और धार्मिक स्लोगन देखे जा सकते हैं। लोर ने मेडिकल ज्ञान का उपयोग कर ग्रामीणों को मुफ्त इलाज, भोजन, शिक्षा और रोजगार प्रदान किया। उनकी सेवाओं ने लोगों का विश्वास जीता, और धीरे-धीरे धर्मांतरण शुरू हुआ।

1870 में उन्होंने लोगों को ईसाई धर्म में शामिल करना शुरू किया। 1880 में जहां केवल 4 लोग ईसाई बने थे, वहीं 1883 तक यह संख्या 258 हो गई। 1884 तक विश्रामपुर के अलावा रायपुर, बैतलपुर और परसाभदर में मिशनरी के सेंटर स्थापित हो गए, और 1,125 लोग ईसाई धर्म अपना चुके थे।लोर ने विश्रामपुर में स्कूल, हॉस्टल और अस्पताल बनवाए। 15 फरवरी 1873 को इम्मानुएल चर्च का निर्माण शुरू किया गया और 29 मार्च 1874 को बनकर तैयार हो गया।

 इस चर्च की विशेषता यह है कि यह पत्थरों से बना ढांचा और बिना कॉलम की संरचना है। इसके बगल में बना कब्रिस्तान देश में संभवत: पहला है, जो चर्च से सटा हुआ है। लोर की इच्छा थी कि जीवन और मृत्यु का संदेश एक ही परिसर में दिखे। उनकी मृत्यु 1907 में कवर्धा में हुई, और उनके शव को विश्रामपुर लाकर यहीं दफनाया गया। उनकी कब्र आज भी कब्रिस्तान में मौजूद है।

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मिशनरी का तेजी से विस्तार

लोर और उनके बेटों ने छत्तीसगढ़ के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में मिशनरी का तेजी से विस्तार किया। उनके बड़े बेटे जूलियस ने बाइबिल के गॉस्पेल ऑफ मार्क्स को छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया, जिससे स्थानीय लोगों को धर्म से जोड़ना आसान हुआ। 1884 तक मिशनरी ने 11 स्कूल खोले और कई गांवों में छोटे-छोटे चर्च बनाए।

आज छत्तीसगढ़ में 900 से अधिक चर्च हैं, जिनमें जशपुर के कुनकुरी में स्थित रोमन कैथोलिक कैथेड्रल एशिया का दूसरा सबसे बड़ा चर्च है, जिसे 1979 में स्थापित किया गया। यह चर्च पूरे देश से ईसाई समुदाय के लोगों को प्रार्थना और धार्मिक आयोजनों के लिए आकर्षित करता है।

जनगणना और आबादी

2011 की जनगणना के अनुसार, छत्तीसगढ़ की कुल जनसंख्या 2.55 करोड़ थी, जिसमें 1.92% (4,90,542) लोग ईसाई थे। अनुमानित आंकड़ों के मुताबिक, 2025 में राज्य की जनसंख्या 3.3 करोड़ के करीब है, और ईसाई आबादी 6 लाख तक पहुंच चुकी है। सबसे ज्यादा आबादी OBC वर्ग की है, और ग्रामीण क्षेत्रों में ईसाई समुदाय का प्रभाव बढ़ा है। मिशनरियों ने शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के जरिए आदिवासी और पिछड़े समुदायों को आकर्षित किया, जिससे यह विस्तार संभव हुआ।

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लोर के बेटे की दुखद कहानी

फादर लोर के बड़े बेटे जूलियस ने मिशनरी के विस्तार में अहम भूमिका निभाई, लेकिन उनकी जिंदगी का अंत दुखद रहा। 1880 के दशक में जंगल में एक बाघ ने जूलियस पर हमला किया और उनकी मृत्यु हो गई। यह घटना विश्रामपुर के लोगों के लिए एक बड़ा झटका थी, लेकिन लोर और उनके छोटे बेटे थियोडोर ने मिशनरी का काम जारी रखा।

विवादों ने सामाजिक सौहार्द पर सवाल उठाए

छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म का सफर फादर ऑस्कर टी. लोर की मेहनत और उनके परिवार की सेवाओं से शुरू हुआ। शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यों के जरिए मिशनरियों ने लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ा। आज 900 से अधिक चर्च और 6 लाख की आबादी इस समुदाय की ताकत दिखाती है। हालांकि, हाल के विवादों ने सामाजिक सौहार्द पर सवाल उठाए हैं। सरकार और समुदायों को मिलकर इस तनाव को कम करने और शांति बनाए रखने के लिए काम करना होगा।

FAQ

छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म की शुरुआत कब और किसके द्वारा हुई थी?
छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म की शुरुआत सन् 1868 में जर्मन मिशनरी रेवरेंड फादर ऑस्कर टी. लोर द्वारा की गई थी। उन्होंने बलौदाबाजार जिले के विश्रामपुर गांव में पहला चर्च "इम्मानुएल चर्च" की स्थापना की और वहीं से मिशनरी कार्यों की नींव रखी।
फादर लोर और उनके परिवार ने छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म के विस्तार के लिए क्या प्रयास किए?
फादर लोर और उनके बेटों ने ग्रामीणों को मुफ्त इलाज, शिक्षा, भोजन और रोजगार देकर उनका विश्वास जीता। उन्होंने स्कूल, हॉस्टल और अस्पताल बनवाए। उनके बेटे जूलियस ने बाइबिल का छत्तीसगढ़ी अनुवाद किया, जिससे धर्म प्रचार आसान हुआ। 1884 तक मिशनरी ने 11 स्कूल और कई चर्च स्थापित कर दिए थे।
हाल के विवादों से ईसाई समुदाय और सामाजिक सौहार्द पर क्या प्रभाव पड़ा है?
हाल ही में मिशनरी सिस्टर्स की गिरफ्तारी और शव दफनाने पर हुए विवादों ने हिंदू और ईसाई समुदायों के बीच तनाव बढ़ाया है। चर्च और घरों पर हमले हुए हैं, जिससे सामाजिक सौहार्द को गंभीर चुनौती मिली है। इस स्थिति को सुधारने के लिए सरकार और दोनों समुदायों को मिलकर शांति और संवाद का मार्ग अपनाना होगा।

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