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छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल बस्तर और सरगुजा संभागों में जंगल की जमीन पर कब्जे का एक बड़ा खेल सामने आ रहा है। गैर-आदिवासियों, खासकर व्यापारियों द्वारा लीज के बहाने आदिवासियों की जमीन हथियाने की होड़ मची हुई है। वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act, 2006) के तहत दिए जाने वाले भूमि अधिकार पट्टों का दुरुपयोग करते हुए कारोबारी कौड़ियों के मोल आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर रहे हैं।
इस प्रक्रिया में आदिवासियों को मामूली कीमत देकर उनकी जमीन पर पक्के निर्माण किए जा रहे हैं, जिसके बाद वन भूमि अधिकार के लिए फर्जी दावे पेश किए जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में देश में सर्वाधिक 9 लाख 47 हजार 479 भूमि अधिकार दावे दर्ज किए गए हैं, लेकिन इनमें से आधे से अधिक खारिज हो चुके हैं। इस खेल ने न केवल आदिवासियों के पारंपरिक अधिकारों को खतरे में डाला है, बल्कि वन अधिकार अधिनियम की मंशा पर भी सवाल उठाए हैं।
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आदिवासियों की जमीन पर लीज का खेल
बस्तर और सरगुजा में आदिवासियों की जमीन पर गैर-आदिवासियों द्वारा कब्जे की शिकायतें लंबे समय से सामने आ रही हैं। यहाँ व्यापारी और कारोबारी आदिवासियों को मामूली कीमत देकर उनकी जमीन लीज पर ले रहे हैं। इसके बाद जमीन पर पेट्रोल पंप, ढाबे, रिसॉर्ट्स, और फार्म हाउस जैसे व्यावसायिक स्ट्रक्चर बनाए जा रहे हैं। यह प्रक्रिया न केवल गैर-कानूनी है, बल्कि आदिवासियों के पारंपरिक भूमि अधिकारों का हनन भी करती है।
आदिवासी समुदायों की जमीन पर केवल आदिवासियों का ही स्वामित्व या कब्जा हो सकता है, और गैर-आदिवासियों को ऐसी जमीन खरीदने के लिए जिला कलेक्टर से अनुमति लेनी पड़ती है। हालांकि, इस अनुमति प्रक्रिया को दरकिनार करने के लिए गैर-आदिवासी आदिवासी के नाम पर भूमि अधिकार दावे पेश कर रहे हैं, जो जांच में सामने आने पर खारिज कर दिए जाते हैं।
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वन अधिकार अधिनियम और दावों की स्थिति
वन अधिकार अधिनियम, 2006 (Forest Rights Act) आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों को उनकी जमीन और संसाधनों पर अधिकार देने के लिए लागू किया गया था। इस कानून के तहत ग्राम सभाओं के माध्यम से व्यक्तियों और संगठनों द्वारा भूमि अधिकार के दावे किए जाते हैं, जिनका सत्यापन जिला प्रशासन द्वारा होता है। छत्तीसगढ़ में इस अधिनियम के तहत अब तक 9 लाख 47 हजार 479 दावे दर्ज किए गए हैं, जो देश में सर्वाधिक हैं। इनमें से 8 लाख 90 हजार 220 व्यक्तिगत दावे और 57 हजार 259 संगठनों के दावे शामिल हैं।
हालांकि, जांच के बाद 31 मई 2025 तक 4 लाख 81 हजार 432 व्यक्तियों और 52 हजार 636 संगठनों को भूमि अधिकार पट्टे दिए गए हैं, जबकि 4 लाख 3,129 व्यक्तिगत दावे और 3,658 संगठनों के दावे खारिज कर दिए गए हैं। देशभर में 36.3% दावे खारिज किए गए हैं, और छत्तीसगढ़ इस मामले में भी सबसे आगे है। ओडिशा (7 लाख 36 हजार 172 दावे, 1 लाख 40 हजार खारिज) और मध्य प्रदेश (6 लाख 27 हजार 513 दावे, 3 लाख 22 हजार 407 खारिज) इस सूची में क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
आदिवासी के नाम पर फर्जी दावे
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की जमीन पर कब्जे का यह खेल संगठित रूप से चल रहा है। गैर-आदिवासी कारोबारी आदिवासियों के नाम पर वन भूमि अधिकार के लिए दावे पेश कर रहे हैं। यह प्रक्रिया ग्राम सभाओं के जरिए शुरू होती है, लेकिन जब जिला प्रशासन द्वारा सत्यापन किया जाता है, तो फर्जी दावों की पोल खुल जाती है।
आदिवासी भूमि पर गैर-आदिवासियों को स्वामित्व के लिए कलेक्टर की अनुमति अनिवार्य है, जो आसानी से नहीं मिलती। इसलिए, कारोबारी लीज के बहाने जमीन हथियाने और फिर उस पर पक्के निर्माण कर अवैध कब्जा करने की रणनीति अपना रहे हैं। बस्तर और सरगुजा में पेट्रोल पंप, ढाबे, और रिसॉर्ट्स जैसे व्यावसायिक निर्माण इस खेल का हिस्सा हैं, जो आदिवासियों के अधिकारों को कमजोर कर रहे हैं।
संसद की रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक दावे
संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, छत्तीसगढ़ में वन अधिकार अधिनियम के तहत सबसे अधिक दावे दर्ज किए गए हैं। कुल 9 लाख 47 हजार 479 दावों के साथ छत्तीसगढ़ देश में पहले स्थान पर है, जबकि ओडिशा और मध्य प्रदेश क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि वन अधिकार अधिनियम का कार्यान्वयन 20 राज्यों और 1 केंद्र शासित प्रदेश में हो रहा है, और इसके लिए जनजातीय कार्य मंत्रालय समय-समय पर दिशा-निर्देश जारी करता है। हालांकि, छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या में दावों का खारिज होना इस बात का संकेत है कि फर्जी दावों और गैर-कानूनी प्रथाओं की निगरानी में प्रशासन सख्ती बरत रहा है।
बस्तर और सरगुजा में बढ़ता संकट
बस्तर और सरगुजा जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्रों में जमीन पर कब्जे की शिकायतें बढ़ रही हैं, लेकिन ठोस निगरानी का अभाव है। एक ओर जहां आदिवासियों को उनकी जमीन के बदले मामूली कीमत दी जा रही है, वहीं दूसरी ओर उनकी जमीन पर व्यावसायिक निर्माण कर गैर-आदिवासी मुनाफा कमा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन जैसे संगठन इस प्रक्रिया की कड़ी निंदा कर चुके हैं। 2019 में कांकेर जिले के अंतागढ़ तहसील के ग्राम कलगांव में 30 से अधिक आदिवासी परिवारों को बेदखली के नोटिस जारी किए गए थे, जब उनकी जंगल भूमि को भिलाई इस्पात संयंत्र (बीएसपी) को “अदला-बदली” की गैर-कानूनी प्रक्रिया के तहत हस्तांतरित किया गया था। इस तरह की घटनाएं आदिवासियों के बीच असुरक्षा और असंतोष को बढ़ा रही हैं।
वन अधिकार अधिनियम का दुरुपयोग
वन अधिकार अधिनियम का उद्देश्य आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों को उनके पारंपरिक अधिकारों की रक्षा करना था, लेकिन इसका दुरुपयोग बस्तर और सरगुजा में साफ दिखाई दे रहा है। ग्राम सभाओं की सहमति, जो इस कानून के तहत अनिवार्य है, को अक्सर अनदेखा किया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में 16 राज्यों को खारिज हुए दावों के आधार पर 12 लाख जनजातीय और वनवासियों को बेदखल करने का आदेश दिया था, लेकिन छत्तीसगढ़ में इस प्रक्रिया को लेकर विवाद बना हुआ है। सामाजिक संगठनों का कहना है कि अधिनियम की अधूरी प्रक्रिया और गैर-कानूनी हस्तांतरण के कारण आदिवासी अपनी जमीन से हाथ धो रहे हैं।
सरकार और प्रशासन की चुनौती
छत्तीसगढ़ सरकार के सामने इस मामले में दोहरी चुनौती है। एक ओर, वन अधिकार अधिनियम के तहत आदिवासियों के हकों की रक्षा करना जरूरी है, वहीं दूसरी ओर, गैर-आदिवासियों द्वारा फर्जी दावों और अवैध कब्जों पर रोक लगाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
संसद की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य सरकारें इस अधिनियम को लागू करने के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन निगरानी और सत्यापन प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी के कारण यह खेल जारी है। सामाजिक कार्यकर्ताओं और आदिवासी संगठनों ने मांग की है कि गैर-कानूनी लीज और कब्जों को तत्काल रोका जाए और आदिवासियों को उनकी जमीन का पूरा हक दिया जाए।
सामाजिक और कानूनी संकट
बस्तर और सरगुजा में आदिवासियों की जमीन पर बढ़ते कब्जे और वन अधिकार अधिनियम के दुरुपयोग ने एक गंभीर सामाजिक और कानूनी संकट को जन्म दिया है। प्रशासन को चाहिए कि वह ग्राम सभाओं की भूमिका को और मजबूत करे, सत्यापन प्रक्रिया को पारदर्शी बनाए, और गैर-कानूनी कब्जों पर सख्त कार्रवाई करे।
साथ ही, आदिवासियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए जमीनी स्तर पर अभियान चलाने की जरूरत है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश और संसद की रिपोर्ट को आधार बनाकर ठोस कदम उठाए जाने चाहिए, ताकि आदिवासियों की जमीन पर कारोबारियों का कब्जा रोका जा सके और उनके पारंपरिक अधिकार सुरक्षित रहें।
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