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छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र में टिफिन बम रखने के आरोप में दो ग्रामीणों को नक्सली बताकर गिरफ्तार करने वाली पुलिस को बिलासपुर हाई कोर्ट से करारा झटका लगा है। जस्टिस संजय एस अग्रवाल और जस्टिस राधाकिशन अग्रवाल की डिवीजन बेंच ने राज्य सरकार की अपील को खारिज करते हुए स्पेशल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।
इसमें मुचाकी देवा और विज्जा पोडियामी को बरी कर दिया गया था। कोर्ट ने पुलिस के बयानों में विरोधाभास और सबूतों की कमी को आधार बनाकर यह फैसला सुनाया, जिसमें साफ कहा गया कि संदेह के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
नौ साल पुराना है मामला
यह मामला 10 सितंबर 2015 का है, जब दरभा पुलिस थाना और एसटीएफ की संयुक्त टीम फरार नक्सलियों की तलाश में कोलेंगे और चंदामेटा गांव की ओर निकली थी। गश्त के दौरान भद्रिमाहू गांव के पास पुलिस को दो ग्रामीण, मुचाकी देवा और विज्जा पोडियामी, संदिग्ध हालत में झाड़ियों के पीछे मिले।
पुलिस ने दावा किया कि दोनों ने पूछताछ में प्रतिबंधित माओवादी संगठन से संबंध होने की बात कबूल की। पुलिस ने मुचाकी देवा की निशानदेही पर एक टिफिन बम, बैटरी और तार बरामद करने का दावा किया, जबकि विज्जा पोडियामी के घर के पीछे से भी एक टिफिन बम जब्त करने की बात कही। इसके आधार पर दोनों के खिलाफ छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज की गई और उन्हें जेल भेज दिया गया।
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स्पेशल कोर्ट ने की थी कड़ी टिप्पणी
जगदलपुर के स्पेशल कोर्ट में मामले की सुनवाई के दौरान पुलिस के दावों की पोल खुल गई। जांच अधिकारी, हेड कांस्टेबल और कांस्टेबल के बयानों में गंभीर विरोधाभास सामने आए। कोर्ट ने पाया कि पुलिस के पास ठोस सबूतों का अभाव था और बयान परस्पर विरोधी थे। इस आधार पर स्पेशल कोर्ट ने दोनों ग्रामीणों को बरी कर उनकी रिहाई का आदेश दिया था। कोर्ट ने पुलिस की जांच पर सवाल उठाते हुए कड़ी टिप्पणी भी की थी।
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हाई कोर्ट ने बरकरार रखा फैसला
स्पेशल कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए राज्य सरकार ने हाई कोर्ट में अपील दायर की थी। जस्टिस संजय एस अग्रवाल और जस्टिस राधाकिशन अग्रवाल की डिवीजन बेंच ने सुनवाई के बाद स्पष्ट किया कि अभियोजन पक्ष का पूरा मामला संदेह पर आधारित था। कोर्ट ने कहा, "संदेह कितना भी मजबूत हो, वह सबूत का स्थान नहीं ले सकता।"
बेंच ने यह भी रेखांकित किया कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि जब्त सामग्री विस्फोटक थी या दोनों ग्रामीण नक्सली गतिविधियों में शामिल थे। कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य न होने के कारण हाई कोर्ट ने स्पेशल कोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए सरकार की अपील खारिज कर दी।
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पुलिस बयानों में विरोधाभास की पोल
सुनवाई के दौरान पुलिस के बयानों में कई खामियां उजागर हुईं। जांच अधिकारी ने दावा किया कि 14 सितंबर 2015 को भद्रिमाहू गांव के पास झाड़ियों में दोनों ग्रामीणों को पकड़ा गया और सारी कागजी कार्रवाई फुटपाथ पर की गई। वहीं, हेड कांस्टेबल और कांस्टेबल ने कहा कि जब्ती और दस्तावेजों पर हस्ताक्षर पुलिस थाने में किए गए।
टिफिन बम की बरामदगी को लेकर भी बयान परस्पर विरोधी थे। जांच अधिकारी ने कहा कि बम उसी स्थान पर मिला जहां से ग्रामीणों को पकड़ा गया, जबकि कांस्टेबल ने दावा किया कि बम एक किलोमीटर दूर गड्ढे में 15-20 मीटर की दूरी पर मिला। इन विरोधाभासों ने पुलिस के दावों पर सवाल खड़े किए।
न्याय की जीत, पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल
हाई कोर्ट के इस फैसले ने न केवल दो ग्रामीणों को बेगुनाही का हक दिलाया, बल्कि पुलिस की जांच प्रक्रिया और सबूत जुटाने की कार्यप्रणाली पर भी गंभीर सवाल उठाए। कोर्ट ने साफ किया कि बिना ठोस सबूतों के किसी को नक्सली बताकर सजा देना अन्याय है। यह मामला नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस कार्रवाई और निर्दोष लोगों के फंसने की आशंकाओं को फिर से चर्चा में ला सकता है।
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