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छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम के उल्लंघन के मामले में राज्य सरकार और शिक्षा विभाग को कठघरे में खड़ा किया है। बिना मान्यता प्राप्त निजी स्कूलों के संचालन और उनकी मनमानी पर सवाल उठाते हुए हाईकोर्ट ने शिक्षा सचिव को 17 सितंबर तक शपथपत्र के माध्यम से जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है।
कोर्ट ने कड़े शब्दों में पूछा है कि छोटे-छोटे कमरों में चल रहे इन गैर-मान्यता प्राप्त स्कूलों में यदि कोई बड़ी दुर्घटना होती है, तो इसके लिए जिम्मेदार कौन होगा? यह मामला शिक्षा विभाग के ज्वाइंट सेक्रेटरी द्वारा पेश किए गए शपथपत्र से असंतुष्टि के बाद और गंभीर हो गया है।
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जनहित याचिका ने खोली पोल
सामाजिक कार्यकर्ता विकास तिवारी द्वारा दायर जनहित याचिका ने प्रदेश में बिना मान्यता के संचालित हो रहे निजी स्कूलों की अनियमितताओं को उजागर किया है। याचिका में कहा गया है कि कई निजी स्कूल बिना किसी मान्यता के नर्सरी से लेकर कक्षा 8 तक की पढ़ाई करा रहे हैं। ये स्कूल न केवल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 का उल्लंघन कर रहे हैं, बल्कि गरीब और वंचित तबके के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने के प्रावधान को भी नजरअंदाज कर रहे हैं।
इसके अलावा, ये स्कूल मनमानी फीस वसूल रहे हैं और सरकारी सब्सिडी का दुरुपयोग कर रहे हैं। याचिका में यह भी उल्लेख किया गया कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है, जिसे ये स्कूल धता बता रहे हैं।
हाईकोर्ट की नाराजगी और सवाल
चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा की अध्यक्षता वाली डिवीजन बेंच ने सुनवाई के दौरान शिक्षा विभाग के ज्वाइंट सेक्रेटरी द्वारा पेश किए गए शपथपत्र को अपर्याप्त माना। कोर्ट ने शिक्षा सचिव को अगली सुनवाई में स्वयं शपथपत्र दाखिल करने का आदेश दिया, जिसमें यह स्पष्ट करने को कहा गया है कि बिना मान्यता के चल रहे स्कूलों के खिलाफ अब तक क्या कार्रवाई की गई है।
कोर्ट ने सवाल उठाया कि छोटे और असुरक्षित कमरों में संचालित इन स्कूलों में अगर कोई हादसा होता है, जैसे आगजनी या अन्य दुर्घटना, तो उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? कोर्ट ने यह भी पूछा कि शिक्षा विभाग ने ऐसे स्कूलों को मान्यता देने या बंद करने के लिए क्या कदम उठाए हैं।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम का महत्व
शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 भारत में बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करने का एक ऐतिहासिक कदम है। यह कानून न केवल सरकारी स्कूलों, बल्कि निजी स्कूलों को भी बाध्य करता है कि वे आर्थिक रूप से कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चों को 25% सीटों पर मुफ्त शिक्षा प्रदान करें।
हालांकि, याचिका में आरोप लगाया गया है कि छत्तीसगढ़ में कई निजी स्कूल इस प्रावधान का पालन नहीं कर रहे हैं। इसके बजाय, वे बिना मान्यता के संचालित हो रहे हैं और न तो सुरक्षा मानकों का पालन कर रहे हैं और न ही शैक्षणिक गुणवत्ता सुनिश्चित कर रहे हैं।
सरकार के सामने चुनौती
हाईकोर्ट के इस सख्त रुख ने राज्य सरकार और शिक्षा विभाग के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम केवल कागजी कानून नहीं है, बल्कि इसे धरातल पर लागू करना सरकार की जिम्मेदारी है।
बिना मान्यता के स्कूलों के संचालन पर रोक लगाना, उनकी जांच करना और सुरक्षा मानकों को सुनिश्चित करना अब शिक्षा विभाग के लिए प्राथमिकता बन गया है। साथ ही, इन स्कूलों द्वारा गरीब बच्चों को प्रवेश देने से इनकार करने की शिकायतों पर भी त्वरित कार्रवाई की जरूरत है।
अगली सुनवाई पर नजर
हाईकोर्ट ने शिक्षा सचिव को 17 सितंबर 2025 तक शपथपत्र के माध्यम से जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है। इस जवाब में सरकार को यह बताना होगा कि बिना मान्यता के स्कूलों के खिलाफ क्या कदम उठाए गए हैं और बच्चों की सुरक्षा व शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं।
कोर्ट का यह कदम न केवल शिक्षा विभाग को जवाबदेह बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण है, बल्कि यह उन हजारों बच्चों के भविष्य को भी सुरक्षित करने की दिशा में एक बड़ा कदम है, जो इन स्कूलों में पढ़ रहे हैं।
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