हाई कोर्ट का फैसला, तलाक के लिए मानसिक बीमारी का दावा करने हेतु मनोरोग विशेषज्ञ की पुष्टि अनिवार्य

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने मानसिक बीमारी के आधार पर तलाक से संबंधित एक अहम फैसला दिया है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि अब तलाक की अर्जी सिर्फ डॉक्टर की पर्ची या साधारण मेडिकल दस्तावेज़ के आधार पर स्वीकार नहीं की जाएगी।

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Krishna Kumar Sikander
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छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने तलाक के एक मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जिसमें पति या पत्नी की मानसिक बीमारी के आधार पर दायर तलाक की याचिका पर सख्त नियम लागू किए गए हैं। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मानसिक बीमारी का दावा करने वाले याचिकाकर्ता को केवल डॉक्टर की पर्ची या सामान्य चिकित्सकीय दस्तावेज पेश करना पर्याप्त नहीं होगा। इसके लिए मनोरोग विशेषज्ञ की गवाही और ठोस सबूत प्रस्तुत करना अनिवार्य होगा, जो यह सिद्ध करे कि दूसरा पक्ष मानसिक रूप से अक्षम है और वैवाहिक जीवन या संतानोत्पत्ति के लिए असमर्थ है।

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दावे के समर्थन में ठोस सबूत नहीं दिया

मामले की सुनवाई जस्टिस रजनी दुबे और जस्टिस एके प्रसाद की डिवीजन बेंच में हुई। यह मामला एक पति द्वारा दायर याचिका से संबंधित था, जिसमें उसने अपनी पत्नी को मानसिक रोगी बताते हुए विवाह विच्छेद (तलाक) की मांग की थी। याचिकाकर्ता ने दावा किया था कि पत्नी की मानसिक स्थिति के कारण वैवाहिक जीवन संभव नहीं है। हालांकि, याचिकाकर्ता अपने दावे के समर्थन में ठोस सबूत या मनोरोग विशेषज्ञ की पुष्टि प्रस्तुत नहीं कर सका। सुनवाई के दौरान, डिवीजन बेंच ने फैमिली कोर्ट के निर्णय को यथावत रखते हुए याचिका को खारिज कर दिया।

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केवल दवाइयों की पर्ची पर्याप्त नहीं

हाई कोर्ट ने अपने फैसले में जोर दिया कि मानसिक अक्षमता के आधार पर विवाह को रद्द करने की मांग करने वाली याचिका में याचिकाकर्ता का यह दायित्व है कि वह स्पष्ट और विश्वसनीय सबूतों के माध्यम से यह साबित करे कि दूसरा पक्ष मानसिक विकार से पीड़ित है। कोर्ट ने कहा कि इसके लिए केवल दवाइयों की पर्ची या सामान्य चिकित्सक का प्रमाण पत्र पर्याप्त नहीं है। मानसिक बीमारी की गंभीरता और इसके वैवाहिक जीवन पर प्रभाव को सिद्ध करने के लिए मनोरोग चिकित्सक द्वारा विस्तृत जांच और गवाही आवश्यक है। कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि मानसिक बीमारी का दावा गंभीर आरोप है, और इसे बिना मजबूत आधार के स्वीकार नहीं किया जा सकता।

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दावों के दुरुपयोग को रोकने में मिलेगी मदद 

यह फैसला तलाक के मामलों में मानसिक बीमारी के दावों की जांच को और अधिक पारदर्शी और सख्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे न केवल ऐसे दावों के दुरुपयोग को रोकने में मदद मिलेगी, बल्कि यह भी सुनिश्चित होगा कि तलाक की प्रक्रिया में न्याय और निष्पक्षता बनी रहे। यह निर्णय उन लोगों के लिए भी एक सबक है जो बिना पर्याप्त सबूतों के मानसिक बीमारी जैसे संवेदनशील मुद्दों को आधार बनाकर तलाक की मांग करते हैं। 

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वैवाहिक विवादों में न्यायपूर्ण समाधान जरूरी

इसके साथ ही, यह फैसला मानसिक स्वास्थ्य के प्रति समाज में जागरूकता बढ़ाने और मनोरोग विशेषज्ञों की भूमिका को महत्व देने की दिशा में भी एक कदम है। हाई कोर्ट के इस निर्णय से तलाक के मामलों में सबूतों की गुणवत्ता और विश्वसनीयता पर अधिक ध्यान दिया जाएगा, जिससे वैवाहिक विवादों में न्यायपूर्ण समाधान सुनिश्चित हो सके।

FAQ

हाई कोर्ट ने मानसिक बीमारी के आधार पर तलाक की याचिका में कौन-सा नया मापदंड तय किया है?
हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि मानसिक बीमारी के आधार पर तलाक की याचिका में केवल डॉक्टर की पर्ची या सामान्य चिकित्सकीय दस्तावेज पर्याप्त नहीं हैं। याचिकाकर्ता को मनोरोग विशेषज्ञ की विस्तृत जांच, गवाही और ठोस सबूत प्रस्तुत करना अनिवार्य होगा जो यह सिद्ध करे कि दूसरा पक्ष मानसिक रूप से अक्षम है और वैवाहिक जीवन के लिए अयोग्य है।
हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता की याचिका को क्यों खारिज कर दिया?
कोर्ट ने याचिकाकर्ता की याचिका इसलिए खारिज कर दी क्योंकि वह यह साबित नहीं कर सका कि उसकी पत्नी मानसिक रूप से बीमार है। उसने कोई ठोस सबूत या मनोरोग विशेषज्ञ की रिपोर्ट या गवाही प्रस्तुत नहीं की थी, सिर्फ सामान्य डॉक्टर की पर्चियाँ दी थीं, जो कोर्ट के अनुसार अपर्याप्त थीं।
इस फैसले का तलाक की प्रक्रिया पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
इस फैसले से तलाक की प्रक्रिया अधिक पारदर्शी और सख्त होगी, खासकर मानसिक बीमारी के दावे से संबंधित मामलों में। इससे ऐसे दावों के दुरुपयोग को रोका जा सकेगा और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े संवेदनशील मुद्दों पर समाज में जागरूकता बढ़ेगी। यह फैसला यह भी सुनिश्चित करेगा कि न्याय निष्पक्षता के साथ हो और किसी पक्ष को बिना ठोस प्रमाणों के दोषी न ठहराया जाए।

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