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Photograph: (the sootr)
शिवोहम; मैं शिव हूं...
न मुझे मृत्यु का डर है,
न जाति का भेदभाव
मेरा न कोई पिता है, न माता,
न ही मैं कभी जन्मा था,
न है मेरा कोई भाई, न मित्र,
न गुरू, न शिष्य,
मैं बस शिव हूं।
वही शिव जो ब्रह्म है, एक शुद्ध चेतना है अनादि अनंत है...।
ये पंक्तियां अद्वैत वेदांत दर्शन की मूल भावना हैं, जिनके जनक आदि शंकराचार्य हैं। 2 मई 2025 को उनकी जयंती है।
वैदिक सनातन धर्म की पुनर्स्थापना करने वाले महान दार्शनिक आदि शंकराचार्य का जन्म भारत के केरल प्रांत में एर्नाकुलम जिले के ग्राम काल्टी में ईसा पूर्व सन् 507 में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु और मां का नाम आर्याम्बा था।
आठ साल की उम्र में शंकराचार्य को संन्यास की चिद चढ़ी। मां ने उन्हें अनुमति नहीं दी। इस पर शंकराचार्य को एक तरकीब सूझी। नदी में नहाते वक्त वे जोर से चीखे। मां आईं तो बोले, मां मगरमच्छ ने मेरा पैर पकड़ लिया है, पर मैं इसे रोकूंगा नहीं। वैसे भी आप मुझे संन्यास की आज्ञा तो दे नहीं रही हैं, उसके बिना मेरा जीवन किसी काम का नहीं।
मां चिंतित हुईं। फिर बोलीं, बाहर आ जाओ...जो करना है सो कर लेना। यहीं से शंकराचार्य का संन्यासी जीवन शुरू हुआ। वे भ्रमण पर निकले। सबसे पहले नर्मदा किनारे पहुंचे। जहां आठ वर्ष की आयु में पूज्यपाद गोविन्द भगवत्पाद से कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी को उन्होंने संन्यास ग्रहण किया। उन्हीं के रूप में शंकराचार्य को वह ज्योति मिली, जिसने उनकी चेतना को अद्वैत वेदांत में पूर्णरूप से दीक्षित कर दिया। फिर आगे बढ़े। कई विद्वानों से मिले। अपने विचार का प्रचार-प्रसार किया।
ओंकारेश्वर में ही क्यों बनी प्रतिमा
मध्यप्रदेश के खंडवा जिले के ओंकारेश्वर में आदि शंकराचार्य की 108 फीट ऊंची प्रतिमा है। यह भारत की सांस्कृतिक एकता, अद्वैत वेदांत दर्शन और सनातन परंपरा का जीवंत प्रतीक है। यह ओंकारेश्वर ही था, जहां नर्मदा तट पर शंकराचार्य ने तीन वर्षों तक गुरु के सान्निध्य में वेद, उपनिषद और दर्शन की गहराइयों में उतरने का अभ्यास किया। यहीं उन्होंने नर्मदाष्टकम की रचना की। लिहाजा, मध्यप्रदेश सरकार ने ओंकारेश्वर में ही उनकी 108 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित की है। इसे स्टेच्यू ऑफ वननेस नाम दिया गया है।
शंकराचार्य का मध्यप्रदेश से गहरा नाता
आदि शंकराचार्य ने मध्यप्रदेश के चार स्थलों ओंकारेश्वर, महेश्वर, अमरकंटक, उज्जैन और रीवा (पंचमठा) को स्पर्श किया था।
ओंकारेश्वर: यही वह स्थान है, जहां उन्हें बाल्यावस्था में गुरु गोविंदपाद का सान्निध्य प्राप्त हुआ।
अमरकंटक: यहीं से शंकराचार्य ने नर्मदा की परिक्रमा की शुरुआत की।
महेश्वर: आचार्य मंडन मिश्र से शंकराचार्य का शास्त्रार्थ महेश्वर में नर्मदा के किनारे ही हुआ था।
उज्जैन: शंकराचार्य ने बाबा महाकाल के दर्शन किए, 12 ज्योतिर्लिंगों की यात्रा में यह उनका एक प्रमुख पड़ाव था।
रीवा का पंचमठा: आदि शंकराचार्य ने बीहर नदी के किनारे एक हफ्ते प्रवास किया था। इसे वे पंचम मठ बनाना चाहते थे। हालांकि वे इसे पूरा स्थापित नहीं कर पाए। अब संत समाज ने इसे पंचमठा के रूप में स्वीकार कर लिया है। कांची पीठ और पुरी पीठ के शंकराचार्य ने इस स्थान के महत्व को मान्यता दी है।
एकात्मता की मूर्ति
तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 2016-17 में नर्मदा परिक्रमा के दौरान ओंकारेश्वर में एकात्मता की मूर्ति स्थापित करने की घोषणा की थी। इसके बाद इस प्रतिमा की स्थापना से पहले एकात्म यात्रा निकाली गई, जो मध्यप्रदेश की 23 हजार ग्राम पंचायतों से होकर गुजरी। हर पंचायत से मिट्टी, जल और धातु एकत्रित की गई, जिसे प्रतिमा निर्माण में समाहित किया गया।
प्रतिमा निर्माण की गहन प्रक्रिया
- इस ऐतिहासिक प्रतिमा को तैयार करने की प्रक्रिया भी उतनी ही विराट और शोधपरक रही। शंकराचार्य के 12 वर्ष की अवस्था को दर्शाने वाली इस प्रतिमा को लेकर देशभर के शंकराचार्य, संत और विद्वानों से विमर्श हुआ।
- प्रसिद्ध चित्रकार वासुदेव कामत द्वारा मूर्ति की प्रारंभिक कल्पना बनाई गई। 11 मूर्तिकारों ने प्रतिमाएं तैयार कीं, अंत में सोलापुर के भगवान रामपुरे की मूर्ति को अंतिम रूप दिया गया।
- प्रतिमा 100 टन वजनी है और 88% तांबे, 8% टिन तथा 4% जिंक का मिश्रण इसमें प्रयुक्त हुआ है। 290 पैनलों को जेटीक्यू चाइना में एलएंडटी कंपनी द्वारा तैयार कर ओंकारेश्वर में संयोजित किया गया।
अद्वैत लोक में बहुत कुछ खास
इस मूर्ति के साथ अद्वैत लोक और आचार्य शंकर अंतरराष्ट्रीय अद्वैत वेदांत संस्थान की स्थापना की जा रही है। इसमें 45 फीट ऊंचा शंकर स्तंभ बनाया जा रहा है, जिसमें शंकराचार्य के जीवन की 32 घटनाएं प्रदर्शित की जाएंगी।
संन्यासियों का न घर होता है, ना ही नातेदार
मान्यता है कि संन्यासियों का न घर होता है, न संसार में कोई। वे तो अपना पिंडदान करके निकलते हैं। शंकराचार्य का इसी से जुड़ा एक वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य द्वार पर बैठे थे, वहीं उनकी मां आ गईं। उसी स्थान पर मां ने प्राण त्यागे। इसलिए शंकराचार्य ने द्वार के पल्ले (लकड़ी के गेट) से ही मां का अंतिम संस्कार किया। इसलिए कहते हैं कि आज भी शंकराचार्य जी के गांव में अंतिम संस्कार दरवाजे उतारकर किया जाता है। यदि किसी के द्वार पर नया दरवाजा लगा है, तो आप समझ लीजिए कि इनके घर में अमंगल हुआ है।
आचार्य मंडन मिश्र से जब हुआ शास्त्रार्थ
मध्यप्रदेश के खरगोन जिले में स्थित महेश्वर में आदि शंकराचार्य ने आचार्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ किया था। कहा जाता है कि जब शंकराचार्य महेश्वर पहुंचे और उन्होंने पानी भर रहीं महिलाओं से पूछा कि मंडन मिश्र का निवास कहां हैं, तो महिलाओं ने कहा था...जिसके दरवाजे पर तोता और मैना जगत और ब्रह्म के सत्य व मिथ्या होने के विषय पर शास्त्रार्थ कर रहे होंगे, वही मंडन मिश्र का निवास होगा...इतने बड़े विद्वान थे मंडन मिश्र। उनकी पत्नी देवी भारती अद्वितीय विदुषियों में से एक थीं। देवी भारती ही शंकराचार्य जी और मंडन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ की ज्यूरी यानी निर्णायक बनी थीं।
शंकराचार्य जी से शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र हार गए और वे उनके शिष्य बन गए। उनका नाम सुधाकर रखा गया। फिर जब शंकराचार्य जी जाने लगे तो नए शिष्य ने अपने गुरु से पूछा कि मेरे लिए क्या आज्ञा है? इसके जवाब में शंकराचार्य जी ने कहा कि आप मेरे ऊपर वार्त्तिक लिखो।
अब आप सोच रहे होंगे कि ये वार्त्तिक क्या होता है? तो इसका अर्थ होता है उक्तम...यानी जो मैंने कहा है, इसकी व्याख्या करो। शंकराचार्य जी ने अपने शिष्य मंडन मिश्र से यही कहा। फिर बोले, अनुक्तम लिखो...यानी जो मुझसे छूट गया, जो मैंने नहीं कहा, इसकी व्याख्या करो। दुरुक्तम...यानी जो मैंने गलत कहा है, उसकी व्याख्या कीजिए। इस तरह शंकराचार्य जी ने मंडन मिश्र से उक्तम, अनुक्तम और दुरुक्तम की व्याख्या करने को कहा था। अपने एक बयान में डॉ. कुमार विश्वास ने यह दास्तां बताई है।
हालांकि कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि मंडन मिश्र की पत्नी देवी भारती ने भी शंकराचार्य जी से शास्त्रार्थ किया था, उन्होंने मायावी सवाल पूछे थे, जिनके उत्तर शंकराचार्य को पता नहीं थे। इस पर उन्होंने कहा था कि मुझे जब इनके उत्तर मालूम होंगे, आपको बताउंगा।
32 वर्ष की उम्र में लिखे कई ग्रंथ
गोवर्धनमठ की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, आदि शंकराचार्य ने आचार्य शंकर का आविर्भाव ऐसी परिस्थिति में हुआ, जब सनातन धर्म बलहीन, विध्वंश और विच्छिन्न हो गया था। विदेशी आक्रमण हो रहे थे। उन्होंने अपनी विद्वता और तप बल से बौद्ध विद्वानों को पराजित किया। मंडन मिश्र जैसे विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर शिष्य बनाया। उन्होंने 16 वर्ष की उम्र में महान काम किए। राजा सुधन्वा को प्रभावित कर उन्हें शिष्य बनाया।
आदि गुरू शंकराचार्य जी ने 32 वर्ष के संक्षिप्त जीवन काल में कई ग्रंथ लिखे। मंदिरों का जीर्णोद्वार कराया। मठाम्नाय महानुशासन में आचार्य शंकर ने कहा है कि
कृते विश्व गुरू ब्रम्हा त्रेतायां ऋषि सप्तमः।
द्वापरे व्यास एवं स्यात्, कलावत्र भवाभ्यहम्।।
यानी सतयुग में ब्रह्म, त्रेता में वशिष्ठ, द्वापर में वेद व्यास और कलयुग में भगवान शंकर ही विश्वगुरु हैं। उनके द्वारा स्थापित चारों पीठों के आचार्य शंकराचार्य की पद्वी से विभूषित होते हैं। उन्होंने पूर्व में पुरूषोत्तम क्षेत्र पुरी में ऋग्वेद से सम्बन्धित पूर्वाम्नाय गोवर्धनमठ की, दक्षिण में रामेश्वरम् में स्थित कर्नाटक के श्रृंगेरी में यजुर्वेद से सम्बद्ध दक्षिणाम्नाय की, गुजरात में द्वारिकापुरी (सामवेद) श्री शारदामठ एवं बद्रीनाथ क्षेत्र में उत्तर में ज्योतिर्मठ (अथर्ववेद) की स्थापना की।
इसके अनुक्रम में उन्होंने पुरी में पद्यपाद महाभाग को, दक्षिण में हस्तामलकाचार्य को, पश्चिम में सुरेश्वर महाभाग को (मण्डल मिश्र) तथा उत्तर में तोटकायार्य महाभाग को शंकरचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया। 32 वर्ष की आयु में लीला संवरण कर समाधि ली।
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आदि शंकराचार्य की प्रतिमा | एकात्म धाम | मध्य प्रदेश