भागीरथपुरा कांड में अबतक 9 की मौत, जिम्मेदारी तय करने में पुराना खेल, बड़े अफसर बचे, बाकी निपटे

भागीरथपुरा कांड में प्रशासनिक लापरवाही से 9 मौतें हुईं। इंदौर नगर निगम ने जिम्मेदारी तय करने में पुराना तरीका अपनाया। बड़े अधिकारी सुरक्षित। वहीं...

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Rahul Dave
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INDORE. भागीरथपुरा में दूषित पानी से 9 मौतों ने इंदौर नगर निगम की पोल खोल दी है। इंदौर नगर निगम ने जिम्मेदारी तय करने में वही पुराना तरीका अपनाया। अफसर सुरक्षित रहे, कर्मचारी बलि का बकरा बने। न कोई गहन जांच हुई, न सिस्टम फेलियर स्वीकारा गया। जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई नहीं हुई।

स्वच्छ जल : मौलिक अधिकार, विकल्प नहीं

भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट कई फैसलों में कह चुका है कि दूषित पानी देना जीवन के अधिकार का हनन है। यह प्रशासनिक लापरवाही नहीं, संवैधानिक अपराध है। भागीरथपुरा में लोग मजबूरी में दूषित पानी पीते रहे। सिस्टम चुपचाप देखता रहा। यह राज्य और नगर निगम की विफलता है।

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अस्थायी बाहर, स्थायी निलंबित

नगर निगम की तथाकथित त्वरित कार्रवाई में

* उपयंत्री शुभम श्रीवास्तव (अस्थायी) की सेवाएं समाप्त कर दी गईं
* जोनल अधिकारी शालिग्राम सितोले और सहायक यंत्री योगेश जोशी को निलंबित कर दिया गया। यानी जो सबसे कमजोर था, उसे सिस्टम से बाहर कर दिया गया। जो स्थायी ढांचे का हिस्सा हैं, उन्हें अस्थायी सजा देकर मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। यह कार्रवाई जवाबदेही से ज्यादा डैमेज कंट्रोल नजर आती है।

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टेंडर फाइल रोकी, मौतें हुईं

भागीरथपुरा में दूषित जल की समस्या कोई नई नहीं थी। नई नर्मदा  लाइन डालने का टेंडर पहले ही अगस्त माह में स्वीकृत हो चुका था। लेकिन उसकी अंतिम मंजूरी महीनों तक अपर आयुक्त रोहित सिसोनिया की टेबल पर अटकी रही। हैरानी की बात यह है कि मौतों के बाद उसी टेंडर को आनन-फानन में मंजूरी दे दी गई। जिस स्तर पर देरी हुई, उस अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। न विभागीय जांच हुई, न प्रभार हटाया गया।

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जिम्मेदार पर एक सवाल तक नहीं

शहर में नर्मदा जलप्रदाय परियोजना की जिम्मेदारी कार्यपालन यंत्री संजीव श्रीवास्तव पर है। गौरतलब है कि संजीव श्रीवास्तव बरसों से इंदौर में ही डेट है। उसके बाद भी उन पर कोई कार्रवाई नहीं। भागीरथपुरा की घटना ने साबित किया कि शुद्ध जल की मॉनिटरिंग फेल हुई। लीकेज, ड्रेनेज मिक्सिंग और शिकायत निस्तारण पूरी तरह चरमरा गए। इसके बावजूद, जिम्मेदारों को नहीं ठहराया गया। न विभागीय नोटिस जारी हुआ, न जांच की गई। क्या पूरे शहर का पानी खराब हो जाए, तब भी जिम्मेदारी नीचे ही जाएगी?

इन धाराओं में बनता है मामला 

भागीरथपुरा दूषित जल कांड अब सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही का सवाल नहीं है। यह नए आपराधिक कानून (भारतीय न्याय संहिता–BNS 2023) के तहत अपराध तय करने का मामला है। कानून की नजर में यह महज विभागीय कार्रवाई से निपटने लायक नहीं है।

धारा 106(1) लागू होती है

कानूनी जानकारों के मुताबिक, जिन अधिकारियों की जिम्मेदारी सीधे या परोक्ष रूप से जलप्रदाय से जुड़ी थी। उन पर BNS की धारा 106(1) लागू होती है, जो लापरवाही से मृत्यु होने पर दंड का प्रावधान करती है। भागीरथपुरा में दूषित पानी पीने से लोगों की मौत और सैकड़ों के बीमार होने की घटनाएं इसी श्रेणी में आती हैं।

BNS की धारा 117(1) और 117(2) लागू 

इसके अलावा, दूषित पानी की आपूर्ति से लोगों को गंभीर शारीरिक नुकसान पहुंचा है। ऐसे मामलों में BNS की धारा 117(1) और 117(2) लागू होती है, जो लापरवाही से चोट और गंभीर चोट पहुंचाने को दंडनीय अपराध मानती है। अस्पतालों में भर्ती मरीज, उल्टी-दस्त, डायरिया और संक्रमण के शिकार लोग इसी धारा के दायरे में आते हैं।

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BNS की धारा 270 (लोक उपद्रव)

कानून यह भी कहता है कि यदि कोई कार्य पूरे समाज के लिए खतरा बन जाए, तो वह केवल व्यक्तिगत लापरवाही नहीं रह जाता। ऐसे मामलों में BNS की धारा 270 (लोक उपद्रव) लागू होती है। शहर के कई इलाकों में गंदे पानी की शिकायतें सामूहिक खतरे का प्रमाण हैं।

BNS की धारा 271 

सबसे गंभीर पहलू यह है कि दूषित जल से संक्रमण और बीमारी फैलने का खतरा स्पष्ट था। इसके बावजूद पानी की सप्लाई बंद नहीं की गई। ऐसे मामलों में BNS की धारा 271 लागू होती है, जो लापरवाही से बीमारी फैलाने को अपराध मानती है।

BNS की धारा 196 

कानून का अहम पहलू यह है कि लोक सेवक का कर्तव्य पालन न करना अपराध है। BNS की धारा 196 के तहत कार्रवाई होती है। लगातार शिकायतों के बावजूद समाधान न करना अपराध है। टेंडर और सुधार कार्य लंबित रखना भी अपराध है। शिकायतों को बिना समाधान निस्तारित दिखाना भी इस धारा में आता है।

अनुच्छेद 21 का मामला 

संवैधानिक दृष्टि से यह मामला गंभीर है। स्वच्छ पेयजल अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का हिस्सा है। दूषित पानी की आपूर्ति प्रशासनिक विफलता और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। भागीरथपुरा कांड में केवल कर्मचारियों पर कार्रवाई पर्याप्त नहीं है। यह तय होना चाहिए कि लापरवाही किस स्तर पर हुई। किसने आंखें मूंदी रखीं और किसकी चुप्पी से लोग मरे।

निगम ने खुद की जांच तक नहीं बैठाई

जिला प्रशासन ने कलेक्टर शिवम वर्मा के निर्देश पर जांच समिति बनाई। लेकिन नगर निगम, जो जलप्रदाय का जिम्मेदार है, ने स्वतंत्र जांच समिति नहीं बनाई। नगर निगम खुद पर सवाल उठाने से बचता नजर आ रहा है।

शिकायतें बंद, समाधान गायब
311 ऐप और मुख्यमंत्री हेल्पलाइन पर भागीरथपुरा के रहवासियों ने दर्जनों शिकायतें कीं। लेकिन सच्चाई यह है कि बिना समस्या सुलझाए, बिना पानी की गुणवत्ता सुधारे शिकायतें निस्तारित दिखा दी गई। यही लापरवाही आगे चलकर मौतों में बदल गई।

असल सवाल अब भी कायम

* क्या सिर्फ तीन नामों से सिस्टम फेलियर ढक जाएगा?
* क्या ऊपर बैठे अफसर हर बार बचते रहेंगे?
* क्या इंदौर में अगला भागीरथपुरा किसी और इलाके में दोहराया जाएगा? भागीरथपुरा कांड ने साफ कर दिया है। यह पानी की नहीं, जवाबदेही की हत्या है।

स्वच्छ पेयजल : सुप्रीम कोर्ट की स्पष्ट व्याख्या

सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में कहा है कि स्वच्छ पानी जीवन के अधिकार का हिस्सा है। पानी की गुणवत्ता से समझौता नागरिकों के स्वास्थ्य और जीवन को खतरे में डालता है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित है।

Subhash Kumar बनाम बिहार सरकार (1991): प्रदूषित पानी = जीवन के अधिकार का उल्लंघन

सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि प्रदूषित पानी या पर्यावरणीय खतरे को रोकने में राज्य की विफलता जीवन के अधिकार का हनन है। कोर्ट ने माना कि स्वच्छ पर्यावरण और जल, दोनों जीवन के अधिकार का हिस्सा हैं।

AP Pollution Control Board बनाम प्रो. एमवी नायडू (1999): सुरक्षित पेयजल राज्य का संवैधानिक कर्तव्य

कोर्ट ने इस मामले में कहा कि नागरिकों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराना राज्य का संवैधानिक दायित्व है। यदि शासन या उसकी एजेंसियां इस कर्तव्य में चूक करती हैं। इसे केवल प्रशासनिक गलती नहीं, बल्कि संवैधानिक जिम्मेदारी की विफलता माना जाएगा।

Narmada Bachao Andolan बनाम भारत संघ: पानी तक पहुंच मानव अधिकार

सुप्रीम कोर्ट ने पानी को केवल संसाधन नहीं, बल्कि बुनियादी मानव अधिकार बताया। अदालत ने माना कि सुरक्षित पानी तक पहुंच के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।

Municipal Council, Ratlam बनाम वर्धीचंद (1980): संसाधनों की कमी कोई बहाना नहीं

कोर्ट ने इस ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि नगर निकाय संसाधनों की कमी का बहाना बनाकर नागरिकों को सुविधाओं से वंचित नहीं कर सकते। यदि गंदगी, सीवेज या दूषित पानी से जनस्वास्थ्य प्रभावित होता है, तो प्रशासन पर सीधी जवाबदेही होगी।

Paschim Banga Khet Mazdoor Samity बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1996): राज्य की चुप्पी भी अपराध

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह महत्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित किया कि राज्य की निष्क्रियता भी उतनी ही दोषपूर्ण है। जितना कोई सक्रिय गलत कृत्य। लगातार शिकायतों के बावजूद सुधार नहीं करना केवल लापरवाही नहीं, बल्कि जानबूझकर की गई लापरवाही (Wilful Negligence) है।

Consumer Education & Research Centre बनाम भारत संघ: स्वास्थ्य और सुरक्षित वातावरण जीवन का अधिकार

कोर्ट ने इस फैसले में कहा कि स्वास्थ्य और सुरक्षित वातावरण का अधिकार, जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है। यदि सरकारी एजेंसियों की लापरवाही से नागरिकों की जान जाती है, तो केवल विभागीय कार्रवाई पर्याप्त नहीं, बल्कि आपराधिक जवाबदेही भी तय होनी चाहिए।

निष्कर्ष: जवाबदेही पद से नहीं, जिम्मेदारी से तय हो

सुप्रीम कोर्ट ने स्वच्छ जल को मौलिक अधिकार माना है। भागीरथपुरा में निचले कर्मचारियों पर कार्रवाई करना गलत है। जवाबदेही पद के अनुसार नहीं, फैसलों पर तय होनी चाहिए। यह केवल एक इलाके की त्रासदी नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम के लिए चेतावनी है।

सुप्रीम कोर्ट मध्यप्रदेश इंदौर नगर निगम इंदौर दूषित पानी भागीरथपुरा कांड
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