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मध्य प्रदेश हाईकोर्ट।
"सरकारी नौकरी नहीं आसां बस इतना समझ लीजिए, एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है" यह पंक्तियां मध्य प्रदेश में रोजगार को लेकर बिल्कुल सटीक बैठती है क्योंकि मध्य प्रदेश में यदि आपको सरकारी नौकरी पानी है तो सिर्फ शिक्षा से काम नहीं चलता। कानूनी लड़ाई के लिए भी अभ्यर्थियों को कमर कस कर तैयार रहना पड़ रहा है। ऐसा ही एक मामला मध्य प्रदेश के सीधी जिले से सामने आया है जिसमें पटवारी बनने का सपना देखने वाला अभ्यर्थी बीते 25 सालों से कोर्ट के चक्कर काट रहा था और अब जाकर उसे न्याय मिला है।
2005 में हुई परीक्षा और पटवारी बनने में लगे 25 साल
सीधी जिले के सिहावल तहसील में रहने वाले रविनंदन सिंह ने पटवारी बनने के लिए साल 2005 में पटवारी परीक्षा दी थी। रविनंदन सिंह शारीरिक दिव्यांग हैं, उस समय पटवारियों का चयन जिला स्तर पर किया जाता था और जिला कलेक्टर इन नियुक्तियों को नियंत्रित करते थे। इस पटवारी चयन के विज्ञापन के अनुसार अभ्यर्थियों को 10+2 प्रणाली में कक्षा दसवीं पास होना आवश्यक था और साथ ही एक साल का कंप्यूटर डिप्लोमा भी जरूरी था। 60 पटवारी की भर्ती में अन्य विद्यार्थियों को तो चयन हुआ पर रविनंदन की एलिजिबिलिटी या का कर खारिज कर दी गई कि उनका कंप्यूटर डिप्लोमा DOEACC से मान्यता प्राप्त नहीं है। इसके बाद अभ्यर्थी के द्वारा हाईकोर्ट की शरण ली गई।
खुद की कई मामलों की पैरवी, फिर भी नहीं मिली नौकरी
12 सितंबर 2005 को सीधी जिले में पटवारी भर्ती का विज्ञापन निकाला गया था। जिसकी परीक्षा 23 अक्टूबर 2005 को हुई और परिणाम 30 अक्टूबर 2005 को घोषित हुआ था। लेकिन विभाग के द्वारा 31 दिसंबर 2005 को एक नई लिस्ट जारी करते हुए याचिकाकर्ता रविनंदन से कम अंक प्राप्त करने वाले अभ्यर्थियों को ट्रेनिंग में भेज दिया और अभिनंदन को बताया गया कि उनका कंप्यूटर डिप्लोमा DOEACC से मान्यता प्राप्त नहीं है। जबकि अन्य जिलों में दिव्यांग रविनंदन जैसे अन्य डिप्लोमा धारकों की नियुक्ति की गई थी।
नियुक्ति नहीं मिलने पर दिव्यांग रविनंदन ने कोर्ट जाने का फैसला किया और WP 2327/2006 याचिका दायर की। इस मामले की सुनवाई 7 साल तक चली और 15 नवंबर 2011 को याचिकाकर्ता के पक्ष में कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए आदेश किया कि यदि अन्य जिलों में इस तरह की भर्ती की गई है तो याचिकाकर्ता को भी इसका लाभ मिलना चाहिए और 3 महीने के भीतर कमिश्नर भू अभिलेख इस पर कार्यवाही करें। 1 साल तक विभाग के ओर से कोई जानकारी न मिलने के बाद याचिकाकर्ता ने फिर से कोर्ट की अवमानना का मामला दिसंबर 2012 में दायर किया इसके बाद कोर्ट के आदेश के अनुसार कमिश्नर भू अभिलेख के द्वारा जांच की गई, लेकिन उसकी रिपोर्ट में सिर्फ यह बता दिया गया की 59 पटवारियों की भर्ती हुई है। इस जांच रिपोर्ट में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया कि कौन से अभ्यर्थी उपयुक्त थे और कौन से अनुपयुक्त।
कोर्ट के आदेश को टालकर किया गया रविनंदन को प्रताड़ित
कोर्ट के आदेश आते रहे और विभाग के द्वारा अपने फायदे के अनुसार उन आदेशों की व्याख्या करके साल 2021 तक दिव्यांग रविनंदन को भटकाया गया। इस मामले में रविनंदन की बड़ी जीत तब हुई जब साल 2021 में दायर की गई याचिका पर जस्टिस विवेक अग्रवाल का 8 मई 2024 को आदेश आया जिसमें यह माना गया कि रवि नंदन ने जो कंप्यूटर डिप्लोमा किया है उसे दिल्ली सरकार के प्रशिक्षण एवं तकनीकी शिक्षा निदेशालय से मान्यता प्राप्त है और यह डिप्लोमा ITI दर्जे का होने के कारण सरकार से मान्यता प्राप्त माना जाएगा। इसके बाद जस्टिस विवेक अग्रवाल ने आदेश दिया कि कमिश्नर भू अभिलेख सीधी के द्वारा 14 फरवरी 2013 को जारी किया गया आदेश रद्द किया जाता है और कलेक्टर सीधी को यह आदेश दिया कि याचिकाकर्ता रविनंदन को पटवारी के पद पर नियुक्त किया जाए। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा था कि जिन अभ्यर्थियों को कम अंक मिलने के बाद भी सेलेक्ट किया गया है उनके मुकाबले रवि नंदन को वरिष्ठता का लाभ भी दिया जाएगा।
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आदेश के खिलाफ सरकार ने लगाई अपील, फिर भी रघुनंदन की हुई जीत
जस्टिस विवेक अग्रवाल के द्वारा जारी किए गए आदेश का पालन करने की बजाय सरकार दोबारा हाईकोर्ट पहुंच गई और रघुनंदन के खिलाफ अपील दायर कर दी। इस मामले में भी रविनंदन ने खुद अपनी पैरवी की। रविनंदन ने कोर्ट को बताया कि उसे अंग्रेजी नहीं आती है और पूरी बहस उसने हिंदी में ही की। अपने डिप्लोमा की मान्यता से लेकर पूरे मामले में चीफ जस्टिस सुरेश कुमार कैत और जस्टिस विवेक जैन की बेंच के सामने रविनंदन ने एक पेशेवर वकील की तरह अपना पक्ष रखा। सरकार की ओर से अधिवक्ता का वही पुराना तथ्य था कि दिव्यांग रविनंदन का डिप्लोमा शासकीय संस्थान से नहीं किया गया है। लेकिन रविनंदन ने कोर्ट में पेश किए सभी दस्तावेजों से यह सिद्ध कर दिया कि उनका डिप्लोमा दिल्ली सरकार के प्रशिक्षण एवं तकनीकी शिक्षा निदेशालय से मान्यता प्राप्त है।
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25 साल बाद पटवारी बनने का सपना हुआ साकार
हाईकोर्ट की डिविजनल बेंच ने भी यह माना कि पटवारी भर्ती के विज्ञापन के अनुसार डिप्लोमा संस्थान शासन के द्वारा मान्यता प्राप्त होना चाहिए था और याचिकाकर्ता के द्वारा नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ वोकेशनल ट्रेनिंग से मान्यता प्राप्त संस्थान से ही डिप्लोमा लिया गया है। चीफ जस्टिस की बेंच ने जस्टिस विवेक अग्रवाल के द्वारा जारी किए गए पिछले आदेश को सही मानते हुए अब आदेश जारी किया है कि पिछले आदेश का पालन करते हुए भू अभिलेख कमिश्नर सीधी और कलेक्टर सीधी याचिका कर्ता को चार हफ्ते के अंदर पटवारी पद पर नियुक्ति दें। हालांकि अब तो यह नजर आ रहा है की याचिकाकर्ता कि लगभग 25 साल की लड़ाई के बाद जीत हो चुकी है, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बड़े-बड़े मामलों में ध्यान न देने वाले मध्य प्रदेश सरकार के शासकीय अधिवक्ता कहीं इस एक पटवारी को नियुक्ति देने के पीछे सुप्रीम कोर्ट ना पहुंच जाए।
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