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मध्य प्रदेश हाईकोर्ट।
मध्य प्रदेश हाइकोर्ट में कॉलेजियम प्रणाली और विभिन्न समितियों में अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और महिला जजों एवं अधिवक्ताओं के समुचित प्रतिनिधित्व की मांग को लेकर वरिष्ठ अधिवक्ता उदय कुमार ने चीफ जस्टिस सुरेश कुमार कैत के नाम एक लिखित अभ्यावेदन सौंपा है। इस अभ्यावेदन में उन्होंने न्यायपालिका में वंचित वर्गों के अधिवक्ताओं को हाशिए पर रखे जाने और उनके साथ हो रहे कथित भेदभाव का मुद्दा उठाया है।
उन्होंने यह आरोप लगाया कि वरिष्ठ अधिवक्ता नामांकन समिति में सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित नहीं किया गया है, जिसके चलते चयन प्रक्रिया में निष्पक्षता और पारदर्शिता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। उदय कुमार का कहना है कि यदि न्यायपालिका जैसी संस्था में ही प्रतिनिधित्व का संकट बना रहेगा, तो अन्य संस्थानों में सामाजिक न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
वरिष्ठ अधिवक्ताओं के नामांकन में पक्षपात का आरोप
अधिवक्ता उदय कुमार ने अपने अभ्यावेदन में वरिष्ठ अधिवक्ता नामांकन प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए कहा कि इसमें एक ही वर्ग के अधिवक्ताओं को प्राथमिकता दी जा रही है, जबकि एससी, एसटी, ओबीसी और महिला अधिवक्ताओं को इस प्रक्रिया से पूरी तरह बाहर रखा गया है। उन्होंने उदाहरण के रूप में हाल ही में घोषित वरिष्ठ अधिवक्ताओं की सूची का हवाला देते हुए बताया कि कुल 28 नामांकित वरिष्ठ अधिवक्ताओं में से 25 अधिवक्ता केवल एक ही वर्ग से हैं।
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जानबूझकर बनाया गया असंतुलन
उनका आरोप है कि यह असंतुलन जानबूझकर बनाया गया है, जिससे न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व की समावेशीता पर सवाल खड़े होते हैं। इसके अलावा, अधिवक्ता उदय कुमार ने यह भी उल्लेख किया कि वरिष्ठ अधिवक्ता के चयन की प्रक्रिया में पारदर्शिता का घोर अभाव है। उन्होंने दावा किया कि न तो नामांकन प्रक्रिया सार्वजनिक रूप से स्पष्ट की जाती है और न ही यह बताया जाता है कि किन मापदंडों के आधार पर अधिवक्ताओं को वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में चुना जाता है।
संविधान में निहित सामाजिक न्याय का सवाल
अधिवक्ता उदय कुमार ने अपने अभ्यावेदन में संविधान के सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि संविधान में स्पष्ट रूप से यह प्रावधान किया गया है कि हर वर्ग को समान अवसर मिलना चाहिए और प्रतिनिधित्व का संतुलन बनाए रखना सरकारों एवं संस्थानों की जिम्मेदारी है। लेकिन, न्यायपालिका में ही यदि वंचित वर्गों को उचित स्थान नहीं मिलेगा, तो यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ होगा। अधिवक्ता के अनुसार उच्च न्यायालय न केवल न्याय देने वाली संस्था है, बल्कि यह समाज में न्याय और समानता की मिसाल भी प्रस्तुत करता है। यदि यहां ही प्रतिनिधित्व असंतुलित रहेगा, तो अन्य सरकारी और निजी संस्थानों में समान अवसर सुनिश्चित करने की मांग कैसे की जा सकती है। इस प्रकार, न्यायपालिका का समावेशी और संतुलित होना बेहद आवश्यक है, ताकि सभी वर्गों को समान अवसर मिल सके और न्यायिक प्रक्रिया पर जनता का विश्वास बना रहे।
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आरक्षित वर्ग और महिला जजों के प्रतिनिधित्व की मांग
अधिवक्ता उदय कुमार ने अपने अभ्यावेदन में न्यायपालिका की विभिन्न समितियों और कॉलेजियम प्रणाली में संतुलित प्रतिनिधित्व की आवश्यकता पर जोर देते हुए यह मांगें रखीं
1. कॉलेजियम प्रणाली में एससी, एसटी, ओबीसी एवं महिला जजों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए, ताकि न्यायपालिका में सभी वर्गों को समान अवसर प्राप्त हो।
2. मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की स्थायी एवं अस्थायी समितियों में भी वंचित वर्गों के अधिवक्ताओं को उचित भागीदारी दी जाए, जिससे वे न्यायिक व्यवस्था का सक्रिय हिस्सा बन सकें।
3. वरिष्ठ अधिवक्ताओं के नामांकन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए और इसमें सभी वर्गों को समान अवसर दिया जाए, ताकि यह सुनिश्चित हो कि कोई भी वर्ग भेदभाव का शिकार न हो।
4. वरिष्ठ अधिवक्ता नामांकन के लिए स्पष्ट एवं सार्वजनिक रूप से परिभाषित मापदंड तैयार किए जाएं, जिससे चयन प्रक्रिया में निष्पक्षता और पारदर्शिता बनी रहे।
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इसलिए महत्वपूर्ण है यह मुद्दा
सालों से भारतीय न्यायपालिका में वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व एक संवेदनशील विषय रहा है। हालांकि, संविधान में सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने की गारंटी दी गई है, लेकिन उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट के जजों एवं वरिष्ठ अधिवक्ताओं की नियुक्तियों में इस सिद्धांत का पालन नहीं किया जाने के आरोप लगे है। अधिवक्ता उदय कुमार का कहना है कि न्यायपालिका यदि स्वयं निष्पक्ष और समावेशी नहीं होगी, तो आम जनता के लिए न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
यह मुद्दा न केवल वंचित वर्गों को न्यायिक व्यवस्था में उचित स्थान देने से जुड़ा है, बल्कि यह पूरे न्यायिक तंत्र की निष्पक्षता और पारदर्शिता से भी संबंधित है। आरोपों के अनुसार यदि हाइकोर्ट में केवल एक ही वर्ग के लोगों का प्रभुत्व बना रहेगा, तो यह लोकतंत्र और न्याय प्रणाली के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध होगा। इसलिए, इस विषय पर गंभीरता से विचार किया जाना आवश्यक है।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या हाइकोर्ट अपनी चयन प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता और समावेशिता लाने के लिए कोई सुधारात्मक कदम उठाता है या नहीं क्योंकि यह मामला केवल वरिष्ठ अधिवक्ता नामांकन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे न्यायिक तंत्र की निष्पक्षता और समावेशिता पर सवाल खड़ा करता है। इसलिए, यह मुद्दा न केवल कानूनी समुदाय के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए महत्वपूर्ण है। यदि न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व का यह असंतुलन जारी रहा, तो यह सामाजिक न्याय की अवधारणा के लिए एक गंभीर चुनौती बन सकता है।
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वरिष्ठ अधिवक्ताओं पर सुप्रीम कोर्ट ने भी मांगा है हाईकोर्ट से जवाब
आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार 25 फरवरी को वरिष्ठ अधिवक्ताओं की नियुक्ति की प्रक्रिया पर पुनर्विचार के मुद्दे पर सभी हाईकोर्ट और अन्य से जवाब मांगा है। इस सुनवाई के दौरान भी यह मुद्दा उठा था कि सिर्फ कुछ मिनट के इंटरव्यू से वरिष्ठ अधिवक्ताओं पर फैसला कैसे लिया जा सकता है। जस्टिस अभय एस ओका, जस्टिस उज्जल भुइयां और जस्टिस एस वी एन भट्टी की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने मामले की सुनवाई 21 मार्च के लिए निर्धारित की है और यह भी साफ किया है कि अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमानी और उसके बाद सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता मामले में दलीलें पेश करेंगे।