भोपाल।
कल्पना कीजिए, लंबी दूरी की यात्रा पर हैं । ट्रेन के थर्ड एसी डिब्बे में परिवार के साथ सफर कर रहे हैं। परिवार की कोई महिला यात्री अचानक टॉयलेट जाती है... और फिर बाहर नहीं आती। दरवाज़ा अंदर से लॉक हो जाता है।
मोबाइल साथ नहीं, मदद के लिए आवाज़ भी बेकार। आधे घंटे तक घुटन, डर और बेबसी में फंसी रहती हैं। ऐसा ही वाकया हुआ भोपाल के उमेश पांडेय की पत्नी के साथ, और इसके बाद शुरू हुआ एक ऐसा संघर्ष-जिसने देशभर के यात्रियों को सोचने पर मजबूर कर दिया।
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बर्थ फटी , टॉयलेट की सीट टूटी हुई
यह मामला 20 अप्रैल 2022 का है। उमेश पांडेय, जो राजधानी भोपाल के रविदास नगर के निवासी हैं, परिवार सहित त्रिकुल एक्सप्रेस में कन्याकुमारी से भोपाल लौट रहे थे। टिकट था थर्ड एसी का, लेकिन बर्थ फटी हुई, टॉयलेट की सीट टूटी हुई और सफर में असुविधा भरा माहौल। सबसे बड़ी परेशानी तब हुई जब उमेश की पत्नी टॉयलेट गईं और अंदर से लॉक हो गईं। बाहर आने का कोई रास्ता नहीं। मोबाइल भी नहीं था, जिससे किसी को बुला सकें।
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यात्री मानने से ही किया इंकार
करीब 30 मिनट तक टॉयलेट में फंसी रहीं, जब तक कि सहयात्रियों की मदद से दरवाजा किसी तरह खुलवाया गया। उमेश ने ऑनलाइन शिकायत दर्ज कराई। उम्मीद थी कि जवाब मिलेगा, माफी मिलेगी, समाधान होगा। लेकिन जवाब ऐसा आया कि कोई भी सुनकर दंग रह जाए। रेलवे ने पहले तो कहा-"आप तो हमारे यात्री ही नहीं हो!" फिर तर्क दिया कि टिकट केवल यात्रा का अधिकार देता है, सुविधाओं का नहीं! और टॉयलेट? वो तो "मुफ्त" सेवा है, कोई गारंटी नहीं।
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अदालत ने सेवा में स्पष्ट कमी माना
यहां से उमेश पांडेय ने हार नहीं मानी और मामला ले गए भोपाल जिला उपभोक्ता फोरम तक। वहां भी रेलवे ने वही घिसा-पिटा बचाव किया-ट्रेन रोकी नहीं जा सकती, सीट ठीक कराने की कोशिश की थी, और शिकायत समय पर आई नहीं।
लेकिन अदालत ने इसे सेवा में स्पष्ट कमी माना। फोरम ने तर्कहीन दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि सिर्फ यात्रा करवा देना ही रेलवे की जिम्मेदारी नहीं होती। यात्रा के दौरान सुविधा, सुरक्षा और सम्मान देना भी जरूरी है।
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क्या रेलवे अब भी आंख मूंदेगा, या वाकई सुधरेगा?
आख़िरकार जिला उपभोक्ता फोरम का फैसला आया-रेलवे को उमेश पांडेय को ₹40,000 का हर्जाना देना होगा। फोरम के इस फैसले ने गूंज पैदा कर दी-"अगर रेल विभाग सुविधाएं देने में असफल होता है, तो उसे इसकी कीमत चुकानी होगी।"
यह मामला केवल एक यात्री की लड़ाई नहीं थी, यह उन लाखों यात्रियों की तरफ से उठाई गई आवाज़ थी जो रोज़ाना ट्रेनों में सफर करते हैं, और सुविधाओं के नाम पर समझौता करते रहते हैं। अब सवाल यह है-क्या रेल विभाग अब भी आंख मूंदेगा, या वाकई सुधरेगा?