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Photograph: (the sootr)
राजस्थान की छात्र राजनीति में पिछले कुछ वर्षों में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला है। पहले जहां ये चुनाव प्रमुख छात्र संगठनों जैसे NSUI (National Students Union of India) और ABVP (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) के इर्द-गिर्द होते थे, वहीं अब निर्दलीय उम्मीदवारों का दबदबा बढ़ रहा है।
यही कारण है कि अब सत्ता में जो भी पार्टी हो, वह छात्रसंघ चुनावों को टालने में अपनी भलाई समझ रही है। भाजपा सरकार ने भी कोर्ट में साफ कर दिया है कि फिलहाल वह चुनाव कराने का इरादा नहीं रखती। इससे छात्रों में नाराजगी फैल गई है और लोकतांत्रिक मूल्यों पर प्रश्न उठ रहे हैं।
छात्रसंघ चुनाव एक सियासी जोखिम
कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए छात्रसंघ चुनाव अब एक बड़ा सियासी जोखिम बन गए हैं। हार का डर और निर्दलीय उम्मीदवारों का उभार दोनों ही पार्टियों को चुनाव से बचने का कारण बना है। छात्रसंघ चुनाव केवल छात्र प्रतिनिधित्व का मंच नहीं होते, बल्कि ये युवा राजनीति के उभरते नेता तैयार करते हैं। ऐसे में इन चुनावों के परिणाम से सियासी संदेश भी जाता है। इसी वजह से कांग्रेस के बाद अब भाजपा भी इन चुनावों से बचने का रास्ता अपना रही है।
निर्दलीय उम्मीदवारों का बढ़ता दबदबा
हाल के वर्षों में निर्दलीय उम्मीदवार लगातार जीत रहे हैं। NSUI और ABVP कमजोर हो रहे हैं। 2018 के राजस्थान विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में इसका बड़ा उदाहरण देखा गया, जब विनोद जाखड़ ने NSUI से बगावत कर निर्दलीय के रूप में अध्यक्ष पद जीता और आदित्य प्रताप सिंह ने ABVP से बगावत कर महासचिव पद पर कब्जा किया। उस समय चारों प्रमुख पदों पर निर्दलीयों ने जीत हासिल की थी।
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2019 में भी निर्दलीय उम्मीदवारों की जीत
2019 में भी यही कहानी फिर से दोहराई गई। पूजा वर्मा ने NSUI से अलग होकर निर्दलीय के रूप में अध्यक्ष पद जीता, जबकि उपाध्यक्ष और महासचिव पदों पर NSUI का कब्जा रहा। इससे यह साफ हो गया कि अब छात्रसंघ के शीर्ष पद पर पार्टियों का नियंत्रण टूट चुका है और निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
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2022 में भी निर्दलीय उम्मीदवारों की जीत
कोविड-19 के कारण 2020 और 2021 में चुनाव नहीं हो सके थे, लेकिन 2022 में चुनाव हुए तो मुकाबला अब निर्दलीय उम्मीदवारों के बीच था। निर्मल चौधरी ने निहारिका जोरवाल को हराया, दोनों ही निर्दलीय थे। NSUI और ABVP के आधिकारिक उम्मीदवार तीसरे और चौथे स्थान पर रहे। उपाध्यक्ष का पद भी निर्दलीय उम्मीदवार अमीषा मीणा ने जीता। इस प्रकार बड़े छात्र संगठनों को किनारे खड़ा होकर चुनाव परिणामों को देखना पड़ा।
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अब राजनीतिक जोखिम का विषय
कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए अब छात्रसंघ चुनाव एक राजनीतिक जोखिम बन गए हैं। संगठनात्मक कमजोरियों और लगातार हार के कारण इन दलों की छात्र इकाइयों का ढांचा कमजोर हो चुका है। ऐसे में विधानसभा और लोकसभा चुनावों से पहले छात्रसंघ चुनावों में हार सियासी ताकत में गिरावट का संकेत देती है। यही कारण है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में चुनाव नहीं कराए और अब भाजपा भी यही रास्ता अपनाती दिख रही है। पार्टियों की छात्र इकाइयां पहले वैचारिक और चुनावी वर्चस्व रखती थीं, लेकिन अब निर्दलीयों का समर्थन जातीय, स्थानीय और व्यक्तिगत नेटवर्क पर आधारित है, जिसे तोड़ना मुश्किल हो गया है।
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