हाई कोर्ट ने कहा-महाराजा और प्रिंसेज जैसे टाइटल हटाओ, अन्यथा स्वत: ही खारिज हो जाएगी पिटीशन

राजस्थान हाई कोर्ट ने जयपुर के पूर्व राजपरिवार के सदस्यों को पिटीशन में नाम से पहले महाराजा और प्रिंसेज जैसे टाइटल हटाने को कहा है। संशोधित टाइटल पेश नहीं करने पर पिटीशन खारिज मानी जाएंगी।

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Mukesh Sharma
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Photograph: (the sootr)

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Jaipur. राजस्थान हाई कोर्ट ने इस बात पर आपत्ति जताई है कि पूर्व राजघराने के सदस्यों के नाम के आगे अभी भी महाराजा और प्रिंसेज क्यों लिखा जा रहा है। इसके साथ ही कोर्ट ने जयपुर के पूर्व राजपरिवार के सदस्यों को पिटीशन में नाम से पहले महाराजा और प्रिंसेज जैसे टाइटल हटाने को कहा है। 

जस्टिस महेंद्र कुमार गोयल ने य​ह निर्देश राजपरिवार से जुड़े दिवंगत पृथ्वीराज सिंह और जगत सिंह के कानूनी वारिसों की याचिकाओं पर दिए। अदालत ने कहा है कि महाराजा और प्रिंसेज हटाकर संशोधित टाइटल पेश नहीं करने पर दोनों पिटीशन स्वत: ही खारिज मानी जाएंगी।

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दोनों याचिका 26 साल से पेंडिंग

कोर्ट ने दोनों याचिकाओं में पिटीशनर के नाम के पहले महाराजा और प्रिंसेज हटाकर संशोधित टाइटल पेश करने पर सुनवाई 13 अक्टूबर तय की है। जयपुर राजपरिवार के सदस्य पृथ्वीराज सिंह और जगत सिंह ने दो अलग-अलग याचिका दायर करके हाउस-टैक्स और अब यूडी टैक्स की वन-टाइम वसूली को चुनौती दे रखी है। दोनों ही पिटीशन 24 साल से हाई कोर्ट में पेंडिंग हैं।  

2022 में भी हाई कोर्ट ने जताई थी आपत्ति

वर्ष 2022 में भरतपुर की पूर्व रियासत के राजा मानसिंह के बेटों के बीच संपति विवाद के मामले में सुनवाई के दौरान जस्टिस समीर जैन ने राजा शब्द के उपयोग पर आपत्ति जताते हुए केंद्र और राज्य सरकार से जवाब मांगा था। जस्टिस समीर जैन की कोर्ट पूर्व भरतपुर रियासत के राजा मानसिंह के बेटों के बीच संपति विवाद के मामले में सुनवाई कर रही थी। इसमें कोर्ट के सामने आया कि मामले में पक्षकार लक्ष्मण सिंह के नाम के आगे राजा शब्द जुड़ा हुआ है। इस पर कोर्ट ने पूछा था कि 26वें संविधान संशोधन के तहत अनुच्छेद 363-ए जोड़ने के बाद भी क्या कोई अपने नाम के आगे राजा-महाराजा शब्द लिख सकता है। 

अनुच्छेद 363-ए के तहत पाबंदी

कोर्ट ने अनुच्छेद 363-ए का हवाला देते हुए कहा था कि इसके तहत राजा, महाराजा, राजकुमार, नवाब आदि की पदवी हटाते हुए उनको प्रिवी पर्स दिए जाने पर पाबंदी लगा दी थी। संविधान के इस प्रावधान के बाद भी क्या कोई अपने नाम के आगे राजा, महाराजा और राजकुमार की पदवी का इस्तेमाल करके किसी हाई कोर्ट या ट्रायल कोर्ट में मुकदमा दायर कर सकता है। कोर्ट ने अनुच्छेद 14 का हवाला देते हुए कहा था कि संविधान में सभी को समानता का अधिकार दिया गया है।

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क्यों नहीं लिख सकते महाराजा और प्रिंसेज

आजादी के समय देश में जितने भी राजा-महाराजा या नवाब आदि थे, उनके सामने बड़ा प्रश्न यह था कि जब रियासतों का भारत में विलय हो जाएगा तो उनका क्या होगा? भारत स्वतंत्र तो हो गया था, लेकिन वह राजशाही-नवाबशाही से मुक्त नहीं हुआ था। उसके राजशाही की छाया से बाहर आने के लिए एक अलग किस्म की क्रांति की आवश्यकता पड़ी। 

रियासतों को साथ जोड़ने की कवायद

आजादी के बाद 550 से अधिक रियासतों को भारत से जोड़ना आसान राजनीतिक काम नहीं था, लेकिन यह काम बिना हिंसा के हुआ। रियासतों को भारत से जोड़ने के लिए हुए समझौतों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था नरेशों-राजप्रमुखों के लिए भारत सरकार की ओर से प्रिवी पर्स यानी निजी थैली के रूप में एक निश्चित रकम मिलना। इसके लिए एक लाख रुपए राजस्व पर 15 प्रतिशत, अगले चार लाख रुपए पर 10 प्रतिशत, पांच लाख रुपए से अधिक पर 7.5 प्रतिशत और अधिकतम 10 लाख रुपए का फॉर्मूला तय हुआ था। 

जयपुर, ग्वालियर, हैदराबाद, मैसूरु सरीखी कुछ रियासतों के लिए अधिक राशि का भी प्रावधान किया गया। प्रिवी पर्स के तहत दी जाने वाली राशि का उपयोग रियासतों के शासकों द्वारा अपने निजी खर्चों, आवास, विवाह और अन्य समारोहों तथा निजी स्टाफ के लिए किया जाना था। हर रियासत के साथ ऐसा समझौता हुआ, जिसमें प्रिवी पर्स की राशि और उससे संबंधित शर्तों का उल्लेख था।

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किसका कितना था प्रिवी पर्स

समझौते के तहत बड़ौदा (26.50 लाख रुपए), त्रावणकोर (18 लाख रुपए), ग्वालियर (25 लाख रुपए), इंदौर (15 लाख रुपए), जयपुर (18 लाख रुपए), बीकानेर (17 लाख रुपए), जोधपुर (17.50 लाख रुपए), हैदराबाद (50 लाख रुपए) और मैसूरु (26 लाख रुपए) जैसी नौ बड़ी रियासतों को दस लाख रुपए की तय राशि से ज्यादा का प्रिवी पर्स दिया गया था। 

सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 12 अक्टूबर, 1949 के अपने वक्तव्य में साफ कह दिया था कि प्रिवी पर्स केंद्र सरकार द्वारा तय की गई है। इसका स्वरूप राजनीतिक है। तत्कालीन स्थितियों में वित्तीय और प्रशासनिक संघीय व्यवस्था बनाने के लिए रियासतों और राज्यों को भारत में शामिल करना बेहद जरूरी था। इसी कारण से प्रिवी पर्स की राजनीतिक व्यवस्था की गई, ताकि शासक और राजप्रमुख अपनी सत्ता के लिए कोई संघर्ष करना शुरू न कर दें।  

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रियासतों के अधिकारों को सीमित किया

12 अक्टूबर, 1949 को ही संविधान के मसौदे में अनुच्छेद 224, 225, 235, 236, 237 समेत 13 अनुच्छेद में संशोधन करके रियासतों के अधिकारों को सीमित किया गया। साथ ही रियासतों के शासकों के लिए प्रिवी पर्स का प्रावधान करने वाले अनुच्छेद 267-क को जोड़ा गया, जो अंतिम रूप से स्वीकृत संविधान में अनुच्छेद 291 पर दर्ज हुआ। ​प्रिवी पर्स की व्यवस्था को स्थायी व्यवस्था नहीं माना गया था। वास्तव में यह व्यवस्था लोकतंत्र, समता और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक न्याय के उन मूल्यों के विपरीत भी थी। इनका उल्लेख संविधान की उद्देशिका में किया गया था। यह व्यवस्था मूलभूत अधिकारों में दर्ज अनुच्छेद 117, जिसमें उपाधियों का अंत किया गया था, के अनुरूप भी नहीं थी, क्योंकि भारत सरकार रियासत के शासकों को अपनी उपाधि बरकरार रखने का अधिकार भी दे रही थी। 

प्रिवी पर्स और विशेषाधिकारों का अंत

प्रिवी पर्स के प्रावधान को हटाने की पहल इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए 1970 में शुरू हुई। उन्होंने दो सितंबर, 1970 को लोकसभा में 24वां संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया। इसमें संविधान के अनुच्छेद 291, 362 और 366 (22) को हटाने यानी रियासतों के नरेशों-राज प्रमुखों को प्रिवी पर्स देने की भारत सरकार की बाध्यता को समाप्त करने का प्रस्ताव था। लोकसभा में यह विधेयक पारित हो गया। इसके बाद 5 सितंबर को यही विधेयक राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया, लेकिन इसे दो तिहाई समर्थन नहीं मिला। यह संशोधन प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। इसके कुछ ही घंटों बाद राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 366 (22) के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए रियासतों के शासकों को दी गई मान्यता को समाप्त कर दिया। इस अनुच्छेद में राष्ट्रपति को ही प्रिवी पर्स के निर्धारण के उद्देश्य से शासकों को मान्यता देने का अधिकार दिया गया था। 

मामला पहुंचा था सुप्रीम कोर्ट

भारत सरकार के इस कदम को महाराजाधिराज माधवराव जीवाजी राव सिंधिया बहादुर (याचिका में दर्ज नाम) ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। उनका कहना था कि भारत सरकार के इस कदम से उनके मूलभूत अधिकारों और संविधानिक विशेषाधिकारों का हनन हुआ है। चीफ जस्टिस एम. हिदायतुल्लाह के नेतृत्व वाली 11 सदस्यीय संविधान पीठ ने भी माना कि संविधान के प्रावधान के मुताबिक राजाओं-शासकों को प्रिवी पर्स देना भारत सरकार की जिम्मेदारी है। यह व्यवस्था समाप्त करना असंवैधानिक है।

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...और हुआ राजशाही का खात्मा

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का मानना था कि प्रिवी पर्स की व्यवस्था सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। इसलिए उन्होंने इसी आधार पर आम चुनावों में जाने का निर्णय लिया और गरीबी हटाओ के नारे के साथ चुनाव लड़कर लोकसभा में 352 स्थान हासिल किए। उनके पास पहले के मुकाबले ज्यादा बहुमत था। इसलिए उन्होंने 31 जुलाई, 1971 को संसद में 26वां संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत कर दिया। 

समतामूलक सामाजिक उद्देश्यों से असंगत

इसके उद्देश्य वक्तव्य में कहा गया था कि प्रिवी पर्स और नरेशों-शासकों के विशेषाधिकार की अवधारणा समतामूलक सामाजिक उद्देश्यों से असंगत है। अतः सरकार ने भारत के पूर्व रियासत शासकों के विशेषाधिकारों और प्रिवी पर्स की व्यवस्था को समाप्त करने का निर्णय लिया है। इसके साथ ही महाराजा, महारानी, राजा, प्रिंस, प्रिंसेज और नवाब जैसी उपाधियां लगाने की व्यवस्था भी समाप्त हो गई। संवैधानिक व्यवस्था में राजशाही के अवशेषों को समाप्त करने के लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ ही उस राजनीतिक प्रावधान को समाप्त किया गया, जो भारत के एकीकरण के लिए स्वीकार किया गया था।

FAQ

1. क्यों राजस्थान हाई कोर्ट ने 'महाराजा' और 'प्रिंसेज' के टाइटल्स को हटाने का आदेश दिया?
हाई कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 363-ए के तहत रियासतों के शासकों को विशेषाधिकार देने वाले टाइटल्स जैसे 'महाराजा' और 'प्रिंसेज' को हटाने का आदेश दिया। इन टाइटल्स का उपयोग भारतीय संविधान के समानता के अधिकार के खिलाफ माना गया है।
2. क्या यह मामला सिर्फ राजस्थान के पूर्व राजपरिवार से संबंधित है?
नहीं, इस मामले में कोर्ट ने पूरे देश में रियासतों के शासकों द्वारा 'महाराजा' और 'प्रिंसेज' जैसे टाइटल्स के उपयोग पर सवाल उठाया है, और इसे संविधान के खिलाफ माना है।
3. क्या राजघराने के सदस्य अब भी 'महाराजा' और 'प्रिंसेज' के टाइटल्स का इस्तेमाल कर सकते हैं?
नहीं, कोर्ट के आदेश के बाद राजस्थान के पूर्व राजपरिवार के सदस्य अब अपने नाम से 'महाराजा' और 'प्रिंसेज' जैसे टाइटल्स का इस्तेमाल नहीं कर सकते।

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