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देश में वनाधिकार कानून 2006 को लागू हुए 19 साल हो चुके हैं, लेकिन राजस्थान (Rajasthan) में आदिवासी अभी भी अपने ही जंगलों में मेहमान की तरह जीवन जीने को मजबूर हैं। आंकड़ों के मुताबिक, राजस्थान में इन 19 सालों में केवल 51,766 वन अधिकार पट्टे ही वितरित किए गए हैं, जिनमें से 49,215 व्यक्तिगत और मात्र 2,551 सामुदायिक अधिकार हैं। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि यहां के आदिवासी अब भी अपने कानूनी अधिकार पाने में बहुत पीछे हैं, जबकि मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्य आदिवासियों को कानूनी हक देने में काफी आगे बढ़ चुके हें।
देश में वनाधिकार के पट्टों के लिए दावों के निपटारे में सबसे अधिक 65 प्रतिशत दावों काे मंजूरी देकर ओडिशा पहले पायदान पर है। वहीं केरल में 64.69 प्रतिशत और त्रिपुरा में 63.79 प्रतिशत मामलों में वन पट्टे प्रदान किए गए हैं। चौथे नंबर पर झारखंड है, जहां 55.95 प्रतिशत मामलों में वन पट्टे वितरित कर दिए गए हैं। अपने लचर प्रदर्शन के कारण राजस्थान टॉप 10 में भी नहीं है।
क्या कहता है वनाधिकार कानून?
वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) का उद्देश्य आदिवासी समुदायों और वन्य-वन (ओटीएफडी) के साथ हुए अन्याय को दूर करना, उनकी भूमि पर स्वामित्व, आजीविका और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना और वनों के संरक्षण की व्यवस्था को मजबूत करना है। साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को वन अधिकार अधिनियम के तहत दावों की अस्वीकृति की समीक्षा करने का निर्देश दिया था।
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राजस्थान में 13 प्रतिशत से अधिक आदिवासी आबादी
2011 की जनगणना के अनुसार, राजस्थान में 13 प्रतिशत से अधिक आदिवासी आबादी है। यह आबादी राज्य के अधिकांश दक्षिण जिलों उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, सिरोही और चित्तौड़गढ़ में निवास करती है। वन अधिकार अधिनियम एक अहम कानून है, जो यह सुनिश्चित करता है कि सामुदायिक अधिकारों और व्यक्तिगत अधिकारों के संदर्भ में आदिवासी समुदायों और ओटीएफडी के अधिकारों की रक्षा की जाए। राजस्थान सरकार के आंकड़ों के अनुसार, उसे कुल 99,506 दावे प्राप्त हुए हैं, जिनमें से 43,326 खारिज कर दिए गए हैं। वहीं अब तक 40,015 स्वीकृत किए गए हैं और 16,165 लंबित चल रहे हैं।
राजस्थान में आदिवासी परिवार ज्यादा, जमीन बहुत कम
राजस्थान में 3.10 लाख एकड़ वनभूमि पर आदिवासियों को अधिकार दिया गया है, जो सुनने में एक बड़ा आंकड़ा लगता है। पर यह उन आदिवासियों के लिए बहुत कम है, जो राजस्थान में पीढ़ियों से जंगल पर निर्भर हैं (राजस्थान में आदिवासियों के हालात कैसे हैं)। महाराष्ट्र में 38.32 लाख एकड़ और मध्यप्रदेश में 23.67 लाख एकड़ वनभूमि पर आदिवासियों को अधिकार दिए गए हैं। इससे यह सवाल उठता है कि क्या आदिवासियों के जीवन, उनकी संस्कृति और परंपराओं की कोई अहमियत है? क्या यही है जनजातीय सशक्तिकरण, जिसका वादा केंद्र सरकार करती है।
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शिक्षा और छात्रवृत्तियों का असंतुलन
वहीं राजस्थान में आदिवासी छात्रों को दी जाने वाली प्री-मैट्रिक और पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्तियों की स्थिति भी चिंताजनक है। 2022-23 में जहां 2.36 लाख छात्रों को पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति मिली थी, वहीं 2023-24 में यह घटकर 1.68 लाख रह गई। आदिवासी संगठन पूछते हैं कि यह गिरावट क्या प्रशासनिक उदासीनता का परिणाम है या फिर बजट की कमी की वजह से हो रही है?
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आरक्षण की बहाली और बैकलॉग की स्थिति
केंद्र सरकार के अनुसार, देशभर में बैकलॉग के 1.15 लाख एसटी पद भरे जा चुके हैं, लेकिन राजस्थान में इसका कोई स्वतंत्र डाटा उपलब्ध नहीं है। राज्य सरकार की यह चुप्पी आदिवासियों के अधिकारों की ओर गंभीरता की कमी को दर्शाती है। अगर आरक्षण केवल विज्ञापनों में ही रहेगा, तो आदिवासियों को बराबरी का हक कैसे मिलेगा?
ट्राइबल प्लस योजना की कमी
केरल में ट्राइबल प्लस योजना के तहत आदिवासियों को अतिरिक्त रोजगार मिल रहा है। वहीं राजस्थान में ऐसी कोई योजना शुरू नहीं हुई है। क्या यह माना जाए कि राज्य सरकार के लिए आदिवासी केवल चुनावी वोटबैंक हैं, जिनकी चिंता चुनावी घोषणापत्र के बाद खत्म हो जाती है?
आज भी अधूरी है न्याय यात्रा
राजस्थान वनाधिकार के मामले में बहुत पीछे है। राजस्थान में वनाधिकार कानून की स्थिति ‘कानून है, लेकिन न्याय नहीं’ जैसी है। आंकड़ों के अनुसार, प्रशासन या तो आदिवासियों के अधिकारों की परवाह नहीं करता या फिर जानबूझकर उन्हें विकास से दूर रखा जा रहा है। क्या यह स्वीकार्य है कि राजस्थान के लाखों आदिवासी अब भी अपने हक के लिए संघर्ष कर रहे हैं? राज्य सरकार और केंद्र को मिलकर यह तय करना होगा कि वे आदिवासियों को वास्तविक हक देना चाहते हैं या सिर्फ आंकड़े पेश करना चाहते हैं। बड़ा सवाल यह है कि क्या वाकई आदिवासियों को उनका हक मिल पाएगा? क्या उन्हें आदिवासी अधिकार और वन भूमि अधिकार मिल सकेंगे?
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