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वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में कुछ ऐसे प्रसंग भी मिलते हैं जिन्हें पढ़कर रौंगटे खड़े हो जाते है, और आंखों में आंसू आ जाते हैं। ऐसा ही प्रसंग बलिदानी चंद्रशेखर आजाद का है। चंद्रशेखर आजाद ने बालवय से ही स्वाधीनता का संघर्ष आरंभ कर दिया था। उनका संघर्ष सत्ता के लिये नहीं था, बल्कि राष्ट्र की संस्कृति और स्वाधीनता के लिए था। किंतु उनके संघर्ष काल और उनके बलिदान के बाद उनकी माता जगरानी देवी का संघर्ष भी ऐसा था जो किसी स्वतंत्रता संग्राम से कम नहीं था। यह ऐसा मार्मिक प्रसंग है कि जिसे पढ़कर आंख से आँसू झरते हैं।
चंद्रशेखर आजाद और परिवार का संघर्ष
आज हम भले बलिदानी चंद्रशेखर आजाद के बलिदान को शत-शत नमन करते हैं। उनकी स्मृति में प्रयागराज और भाबरा दोनों स्थानों पर स्मारक बने हैं लेकिन तब अंग्रेजों की दृष्टि में वे आतंकवादी थे। चंद्रशेखर आजाद के विरुद्ध स्थाई वारंट था, देखते ही गोली मारने के आदेश थे। उनकी तलाश में सात सौ लोग लगाए गए थे। इनमें बड़ी संख्या में मुखबिर भी थे। घर की निगरानी हो रही थी। परिवार से मिलने जुलने वालों पर भी नजर रखी जा रही थी। जिसके कारण सब लोगों ने इस परिवार से किनारा कर लिया था। आजाद के पिता सीताराम जी की नौकरी छूट गई थी। बड़ी मुश्किल से उन्हें छोटा-मोटा काम मिलता था। उनके सामने ही परिवार चलाने के लिए जगरानी देवी को भी मजदूरी करना पड़ती थी। चंद्रशेखर आजाद के परिवार में यह स्थिति 1925 से बन गई थी। तभी 27 फरवरी 1931 को बलिदान का समाचार आया। इससे पिता को जो काम मिलता था वह भी बंद हो गया। दोनों पति पत्नि अभाव में किसी तरह जी रहे थे।
आजाद की माता जगरानी देवी का संघर्ष
आजाद का परिवार भी संकल्पवान था झुका नहीं। यदि परिवार में पिता या माता अपने पुत्र चंद्रशेखर को समर्पण करने का संदेश भेज देते तो वे मान जाते और रोटी का संघर्ष कम हो जाता पर परिवार संकल्पवान था। संघर्ष झेला किंतु इसकी भनक पुत्र चंद्रशेखर को लगने दी। चंद्रशेखर आजाद के बलिदान के दो साल बाद पति सीताराम का भी निधन हो गया। अकेली रह गईं जगरानी देवी। एक-एक रोटी का संघर्ष शुरू हुआ। उन्होंने जंगल में लकड़ियाँ बीनी, कंडे एकत्र किए और उन्हें हाट बाजार में बेचकर किसी तरह रोटी चलाई। उन्हें आतंकवादी की मां माना गया था। लोगों ने ताने दिए। ऐसे ताने उन्होंने स्वतंत्रता के दो साल बाद तक सुने। स्वतंत्रता के बाद भी उनका एक एक रोटी जुटाने का संघर्ष बना रहा। 1949 में क्रांतिकारी सदाशिव मलकापुरकर को खबर लगी। वे भाबरा गए और जगरानी देवी को झांसी ले आए। उन्होंने एक पुत्र की भांति सेवा की, तीर्थयात्रा कराई। जगरानी देवी ने 1951 में अंतिम सांस ली। सदाशिव जी ने ही अंतिम संस्कार किया।
चंद्रशेखर आजाद का जन्म और बचपन
महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को भाबरा गांव में हुआ था। यह गांव मध्यप्रदेश में अलीराजपुर जिले के अंतर्गत आता है। उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के बदरका ग्राम के रहने वाले थे, लेकिन प्राकृतिक और राजनैतिक विषम परिस्थितियों के चलते उन्होंने अपना पैतृक ग्राम छोड़ा और अनेक स्थानों से होकर 1905 के आसपास उनके पिता सीताराम तिवारी झाबुआ आ गए। यहीं बालक चंद्रशेखर का जन्म हुआ। पिता सीताराम तिवारी के पिता 1857 की क्रांति के समय कमल और रोटी का संदेश लेकर गांव-गांव गए थे। परिवार ने अंग्रेजों का दमन झेला था और स्वाधीनता की आग रक्त में प्रवाहित हो रही थी। 1857 के बाद वह सामूहिक दमन हुआ था, गांव के गांव फांसी पर चढ़ाए गए थे। अंग्रेजों के इस दमन की परिवार में अक्सर चर्चा होती थी।
वनवासी माहौल में राष्ट्रभाव का विकास
बालक चंद्रशेखर ने वे कहानियां बचपन से सुनी थीं। इस कारण उनके मन में अंग्रेजी शासन के प्रति एक विशेष प्रकार की वितृष्णा का भाव जागा था, उन्हें अंग्रेजों पर गुस्सा आता था। भावरा गांव वनवासी बाहुल्य क्षेत्र था। अन्य परिवार गिने चुने ही थे। ये परिवार वही थे जो आजीविका या अंग्रेजी शासन की कुदृष्टि से बचने के लिए वहां आकर बसे थे। इस कारण बालक चंद्रशेखर की टीम में सभी वनवासी बालक ही जुटे। इसका लाभ यह हुआ कि बालक चन्द्र शेखर ने धनुष बाण चलाना, निशाना लगाना और कुश्ती लड़ना बचपन में ही सीख लिया था। परिवार का वातावरण राष्ट्रभाव, स्वायत्ता और स्वाभिमान के बोध भाव से भरा था। इस पर गांव का प्राकृतिक और सामाजिक वातावरण। इन दोनों विशेषताओं से बालक चंद्शेखर की मानसिक और शारीरिक दोनों में तीक्ष्णता समृद्ध हुई। उनमें सक्षमता और स्वायत्तता का बोध भी जागा।
जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में सक्रिय भागीदारी
साल 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए किशोरवय चंद्र शेखर ने भी इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। लेकिन उनकी दृढ़ता और संकल्पशीलता का परिचय तब मिला जब वे मात्र चौदह साल के थे। यह 1920 की घटना है। वे आठवीं कक्षा में पढ़ते थे। आयु बमुश्किल चौदह साल की रही होगी। जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण बनने लगा था। यह क्रम लगभग साल भर तक चला था। चूंकि तब संचार माध्यम इतने प्रबल नहीं थे। जहां जैसा समाचार पहुंचता लोग अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते। गांव-गांव में बच्चों की प्रभात फेरी निकालने का क्रम चल रहा था। अनेक स्थानों पर प्रशासन ने प्रभात फेरियों पर पाबंदी लगा दी थी।
नहीं मांगी माफी, लगाते रहे 'भारत माता की जय' के नारे
झाबुआ जिले में भी पाबंदी लगा दी गई थी। लेकिन इसके बाद भी भावरा गांव में यह प्रभात फेरी बालक चंद्रशेखर ने निकाली। उन्होंने किशोर आयु में ही किसी प्रतिबंध की परवाह नहीं की और अपने मित्रों को एकत्र कर कक्षा का बहिष्कार किया, बच्चों को जमा किया और खुलकर प्रभातफेरी निकाली। प्रभात फेरी में रामधुन के साथ स्वाधीनता के नारे भी लगाए। बालक चंद्र शेखर और कुछ किशोरों को पकड़ लिया गया। बच्चों को चांटे लगाए गये माता-पिता को बुलवाया गया, कान पकड़ कर माफी मांगने को कहा गया। लोग डर गए बाकी बच्चों को माफी मांगने पर छोड़ दिया गया। लेकिन चंद्रशेखर ने माफी न मांगी और न अपनी गलती स्वीकार की, उल्टे भारत माता की जय का नारा लगा दिया। इससे नाराज पुलिस ने उन्हे डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया और 15 बेंत मारने की सजा सुना दी गई। उनका नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम "आजाद" बताया। पिता का नाम "स्वतंत्रता" और घर का पता "जेल" बताया। यहीं से उनका नाम चंद्र शेखर तिवारी के बजाय चंद्र शेखर आजाद हो गया।
बेंत की सजा देने के लिए उनके कपड़े उतारकर निर्वसन किया गया। खंबे से बांधा गया और बेंत बरसाए गए। हर बेंत उनके शरीर की खाल उधेड़ता रहा और वे भारत माता की जय बोलते रहे। बारहवें बेंत पर अचेत हो गए फिर भी बेंत मारने वाला न रुका। उसने अचेत देह पर भी बेंत बरसाए। लहू लुहान किशोर चंद्रशेखर को उठा घर लाया गया। ऐसा कोई अंग न था जहां से रक्त का रिसाव न हो। उन्हे स्वस्थ होने में, और घाव भरने में एक माह से अधिक का समय लगा। इस घटना से चंद्रशेखर आजाद की दृढ़ता और बढ़ी। इसका जिक्र पर पूरे भारत में हुआ। सभाओं में उदाहरण दिया जाने लगा। पंडित जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गाँधी ने भी अपने विभिन्न लेखन में इस घटना का उल्लेख किया है।
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बनारस में क्रांतिकारियों से परिचय और क्रांति की ओर कदम
अपनी शालेय शिक्षा पूरी कर चंद्रशेखर पढ़ने के लिए बनारस आए। उन दिनों बनारस क्रांतिकारियों का एक प्रमुख केंद्र था। यहां उनका परिचय सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मन्थ नाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी से हुआ और वे सीधे क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ गए। आंरभ में उन्हे क्रांतिकारियों के लिए धन एकत्र करने का काम मिला। यौवन की देहरी पर कदम रख रहे चंद्रशेखर आजाद ने युवकों की एक टोली बनाई और उन जमींदारों या व्यापारियों को निशाना बनाते जो अंग्रेज परस्त थे। इसके साथ यदि सामान्य जनों पर अंग्रेज सिपाही जुल्म करते तो बचाव के लिए आगे आ जाते।
क्रांतिकारी गतिविधियों में चंद्रशेखर आजाद की भूमिका
उन्होंने बनारस में कर्मकांड और संस्कृत की शिक्षा ली थी। उन्हें संस्कृत संभाषण का अभ्यास भी खूब था। अतएव अपनी सक्रियता बनाए रखने के लिए उन्होंने अपना नाम हरिशंकर ब्रह्मचारी रख लिया था और झांसी के पास ओरछा में अपना आश्रम भी बना लिया था। बनारस से लखनऊ कानपुर और झांसी के बीच के सारे इलाके में उनकी धाक जम गयी थी। वे अपने लक्षित कार्य को पूरा करते और आश्रम लौट आते। क्रांतिकारियों में उनका नाम चंद्र शेखर आजाद था तो समाज में हरिशंकर ब्रह्मचारी। उनकी रणनीति के अंतर्गत ही सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह अपना अज्ञातवास बिताने कानपुर आए थे। 1922 के असहयोग आंदोलन में जहां उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया वही 1927 के काकोरी कांड, 1928 के सेन्डर्स वध, 1929 के दिल्ली विधान सभा बम कांड, और 1929 में दिल्ली वायसराय बम कांड में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है।
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हरिशंकर ब्रह्मचारी: चंद्रशेखर आजाद की गुप्त पहचान और उनकी क्रांतिकारी रणनीति
यह चंद्र शेखर आजाद का ही प्रयास था कि उन दिनों भारत में जितने भी क्रांतिकारी संगठन सक्रिय थे, सबका एकीकरण करके 1928 में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन हो गया था। इन तमाम गतिविधियों की सूचना तब अंग्रेज सरकार को लग रही थी। उन्हे पकड़ने के लिये भावरा और लाहौर से झांसी तक लगभग सात सौ खबरी लगाए गए। पर चंद्र शेखर आजाद तो हरिशंकर ब्रह्मचारी के रूप में ओरछा आ गये। उनके साथ कुछ क्रांतिकारी भी साधु वेष में उनके आश्रम में रहने लगे थे। लेकिन क्रांतिकारी आंदोलन के लिए धन संग्रह का दायित्व अभी भी चंद्र शेखर आजाद पास अभी भी था। वे हरिशंकर ब्रह्मचारी वेष में ही यात्राएं करते और धन संग्रह करते। धनसंग्रह में उन्हे पंडित मोतीलाल नेहरू का भी सहयोग मिला। आजाद जब भी प्रयाग जाते तो हमेशा इलाहाबाद के बिलफ्रेड पार्क में ही ठहरते थे। और यही पार्क उनके बलिदान का स्थान बना।
पंडित मोतीलाल नेहरू की तेरहवीं में शामिल हुए थे आजाद
वह 27 फरवरी 1931 का दिन था। पूरा खुफिया तंत्र उनके पीछे लगा था। वे 18 फरवरी को इस पार्क में पहुंचे थे। यद्यपि उनके पार्क में पहुंचने की तिथि पर मतभेद हैं, लेकिन वे 19 फरवरी को पंडित मोतीलाल नेहरू की तेरहवीं में शामिल हुए थे। तेरहवीं के बाद उनकी कमला नेहरू से भेंट भी हुईं। कमला जी यह जानती थीं कि पं मोतीलाल नेहरू क्रांतिकारियों को सहयोग करते थे। कहा जाता है कि उनके कहने पर चंद्रशेखर आजाद की 25 फरवरी को आनंद भवन में पं जवाहरलाल नेहरु से मिलने पहुंचे। इस बातचीत का विवरण कहीं नहीं है। मुलाकात हुई।
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आजाद का बलिदान: अंतिम गोली और अपने प्राणों की आहुति
अनुमान है कि पंडित नेहरू ने भी सहयोग का आश्वासन दिया था पर इसके प्रमाण कहीं नहीं मिलते। हालांकि बाद में पंडित नेहरू ने अपनी आत्मकथा में क्राँतिकारियों की गतिविधियों पर नकारात्मक टिप्पणी की है। और चंद्र शेखर आजाद को फासीवादी लिखा है। जो हो दो दिन चंद्रशेखर आजाद उसी पार्क में ही रहे। और 27 फरवरी को पुलिस से बुरी तरह घिर गये। पुलिस द्वारा उन्हे घेरने से पहले सीआईडी ने पूरा जाल बिछा दिया था। मूंगफली बेचने, दांतून बेचने आदि के बहाने पुलिस पूरे पार्क में तैनात हो गयी थी और 27 फरवरी की सुबह वे क्रांतिकारी सुखदेव राज से चर्चा कर रहे थे कि पार्क के तीनों रास्तों से पुलिस की गाड़ियां पहुंची और पुलिस की इस टीम का नेतृत्व सीआईडी एसपी नॉट कर रहा था। इसके साथ थाना कर्नलगंज का एसओ तथा अन्य पुलिस वाले एनकाउंटर आरंभ हुआ। आजाद ने तीन पुलिस वाले ढेर कर दिए पर यह एनकाउन्टर अधिक देर न चल सका। यह तब तक ही चला जब तक उनकी पिस्तौल में गोलियां रहीं। वे घायल हो गए थे और अंतिम गोली बची तो उन्होंने अपनी कनपटी पर मारली। वे आजाद ही जिए और आजाद ही विदा हुए।
अंग्रेजों ने किया था आजाद के शव का अपमान
उनके बलिदान के बाद अंग्रेजों ने शव का अपमान किया और लोगों में दहशत पैदा करने के लिए शव को पेड़ लटकाया। यह खबर कमला नेहरू को लगी। उस समय पुरुषोत्तम दास टंडन आनंद भवन आए थे। कमला जी टंडन जी को लेकर पार्क पहुचीं। अंग्रेजी अफसरों से बात की। शव उतरवाया और सम्मान पूर्वक अंतिम संस्कार का प्रबंध किया। अब इस बिलफ्रेड पार्क का नाम चंद्र शेखर आजाद हो गया है।
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