क्या एमबीबीएस की चमक अब फीकी पड़ती जा रही है? बदलते समय, बदलते करियर विकल्प और चिकित्सा शिक्षा की कठिन सच्चाइयां

क्या एमबीबीएस की पढ़ाई अब पहले जैसी नहीं रही? युवाओं का रुझान इसमें कम हो रहा है। जानिए कैसे बदलते समय और बढ़ते करियर विकल्प चिकित्सा क्षेत्र के भविष्य को प्रभावित कर रहे हैं।

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डॉ. प्रमोद शंकर सोनी (The Sootr)

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डॉ. प्रमोद शंकर सोनी

अभी हाल ही में मुझे शहर से लगे एक पीएम श्री नवोदय विद्यालय के बच्चों के बीच आमंत्रित किया गया। वहां बिताए गए लगभग तीन घंटे मेरे लिए अविस्मरणीय रहे। प्रश्नोत्तर सत्र में जब मैंने छात्रों से उनके भविष्य के करियर विकल्पों के बारे में पूछा, तो उनके उत्तर सुखद आश्चर्य से भर देने वाले थे।

यह जानकर प्रसन्नता हुई कि स्कूल में न केवल उच्च गुणवत्ता की शिक्षा दी जा रही है, बल्कि बच्चों को मनोवैज्ञानिक संबल भी प्रदान किया जा रहा है ताकि वे अकेलापन महसूस न करें और सतत उन्नति की ओर बढ़ते रहें।

एक तथ्य ने विशेष रूप से ध्यान खींचा

पूरे सत्र में केवल एक छात्र ने डॉक्टर बनने की इच्छा व्यक्त की। बाकी छात्रों ने विविध क्षेत्रों में अपने करियर के प्रति रुचि दिखाई, जिनमें मनोविज्ञान भी प्रमुख रूप से शामिल था। एक समय था जब सबसे प्रतिभाशाली छात्र बिना किसी विचार-विमर्श के विज्ञान विषय और डॉक्टर बनने के मार्ग का चयन करते थे। परंतु आज का परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। अब अवसरों का विस्तार हो चुका है और छात्र नए-नए क्षेत्रों में अपनी रुचि और क्षमता का परिचय दे रहे हैं।

सच यह है कि पिछले वर्षों में जिस तरह इंजीनियरिंग शिक्षा की गुणवत्ता और रोजगार के अवसरों का ग्राफ नीचे गया, आज कुछ वैसा ही हाल मेडिकल शिक्षा का होता दिखाई दे रहा है। देशभर में तेpr से सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेज तो खुल रहे हैं, लेकिन वहाx दी जाने वाली शिक्षा का स्तर लगातार गिर रहा है। मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों के सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों में पर्याप्त फैकल्टी, लैब और क्लीनिकल प्रैक्टिस जैसी आधारभूत सुविधाओं का भारी अभाव है।

एमबीबीएस पूरा करने के बाद भी जूनियर डॉक्टरों को उपयुक्त नौकरी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। सरकारी अस्पतालों में सम्मानजनक व लाभकारी नियुक्तियों के लिए प्रतियोगिता अत्यंत कड़ी है, जबकि निजी अस्पतालों में वेतन अत्यधिक कम। यह समस्या देश के लगभग हर राज्य - कश्मीर, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, कर्नाटक, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश - में देखी जा सकती है।

सबसे गंभीर स्थिति उन छात्रों की है जो कम खर्च में विदेश से एमबीबीएस करके लौटते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ में ऐसे 7 हजार छात्र हैं जिनके पास विदेश से प्राप्त एमबीबीएस की डिग्री तो है, पर वे भारत में एफएमजी (FMG) परीक्षा पास न कर पाने के कारण प्रैक्टिस नहीं कर पा रहे। पिछले 18 वर्षों में इनमें से केवल 275 छात्रों को ही प्रैक्टिस का लाइसेंस मिल सका है। मजबूरी में कई छात्र अस्पतालों में कम्पाउंडर या एडमिनिस्ट्रेटर तक की नोकरी कर रहे हैं।

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पास करने के लिए छात्रों को बेहद मेहनत करनी पड़ती है। इनमे से 'केवल डॉक्टर ही बनना है' कि मानसिकता रखने वाले कई छात्र कोचिंग पर भारी धनराशि खर्च कर सरकारी कॉलेज में दाखिला न हो पाने की स्थिति में निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश तो ले लेते हैं, पर वहाँ की फीस और पढ़ाई का दबाव मानसिक व आर्थिक दोनों रूप से बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। MBBS करने के बाद PG की दौड़ अलग से एक तनावपूर्ण यात्रा है।

निजी अस्पतालों में एमबीबीएस डॉक्टरों का वेतन कई जगह 20,000 से 40,000 रुपए तक रह गया है। जो शिक्षा में किए गए निवेश और परिश्रम की तुलना में लगभग नगण्य है। वहीं सरकारी अस्पतालों में अवसर और सम्मान अधिक हैं, परंतु नियुक्तियों में अनियमितता, सीमित पद और अत्यधिक प्रतिस्पर्धा बड़ी चुनौती हैं। रेसिडेंट डॉक्टरों पर काम का दबाव, लगातार ड्यूटी और सीमित वेतन उनके स्वास्थ्य और मानसिक स्थिति पर बेहद नकारात्मक असर डालता है।

एमबीबीएस अपनी चमक खो रहा है, इसके पीछे कई ठोस कारण हैं

1. प्रवेश में अत्यधिक प्रतिस्पर्धा: सरकारी कॉलेजों में सीमित सीटों का होना जबकि उम्मीदवार लाखों में होते हैं। थकाऊ और वर्षों लंबी चयन प्रक्रिया।

2. शिक्षा की ऊंची लागत: निजी मेडिकल कॉलेजों की फीस अधिकांश परिवारों की पहुँच से बाहर होना। भारी एजुकेशन लोन का बोझ।

3. तनाव और कार्यभार: MBBS-PG की यात्रा अत्यंत कठिन, लंबे घंटे, कम आराम, और निरंतर मानसिक दबाव।

4. अन्य क्षेत्रों में आकर्षक अवसर: AI, डेटा साइंस, प्रबंधन, मनोविज्ञान, डिजाइन और टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में कम समय में बेहतर आय और कार्य-जीवन संतुलन मिल रहा है।

5. प्रैक्टिस की चुनौतियां: ग्रामीण अंचलों में पोस्टिंग, कमजोर स्वास्थ्य ढांचा, और कभी-कभी मरीजों व उनके परिजनों  का आक्रामक व्यवहार भी डॉक्टरों को इस पेशे से दूर कर रही है।

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2030 तक देश में 10 लाख अतिरिक्त एमबीबीएस डॉक्टर

देश में वर्तमान में प्रति 834 लोगों पर एक डॉक्टर है, जो WHO मानक से बेहतर माना जाता है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में भारी कमी है। 2030 तक देश में लगभग 10 लाख अतिरिक्त एमबीबीएस डॉक्टर होने का अनुमान है, पर सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र अब भी कमजोर है। निजी क्षेत्र में अवसर तो हैं, लेकिन वेतन और सुरक्षा का स्तर अनिश्चित।

आने वाला समय साफ संकेत दे रहा है - अब करियर के विकल्प बहुआयामी हो गए हैं। चिकित्सा पेशे को अपनी पुरानी चमक बनाए रखने के लिए शिक्षा की गुणवत्ता, स्वास्थ्य तंत्र और युवा डॉक्टरों के लिए कार्य-परिस्थितियों में व्यापक सुधार की आवश्यकता है।

मेडिकल शिक्षा का संकट केवल सीटें बढ़ाने से नहीं, बल्कि गुणवत्ता सुधारने से हल होगा डॉक्टरों के लिए सुरक्षित कार्य-परिस्थिति, सम्मानजनक वेतन और व्यावहारिक प्रशिक्षण अनिवार्य किए जाने की आवश्यकता है हमें याद रखना होगा कि आज हमारे समाज को “ज़्यादा डॉक्टर” नहीं, बल्कि बेहतर डॉक्टरों की जरूरत है शायद तब ही एमबीबीएस अपनी खोती चमक वापस पा सकेगा।

(लेखक होम्योपैथिक चिकित्सक, सामाजिक विश्लेषक व तुलसी साहित्य सम्मान से अलंकृत हैं)

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