सुनो भाई साधो... स्वागत की माला तुरंत उतारने का रिवाज

व्यंग्यकार सुधीर नायक ने फूलों की माला पर चर्चा पर की है। इसमें बताया गया है कि यह आलेख माला उतारने की कुप्रथा पर प्रहार करता है। मेहमानों और मेजबानों के बीच असुविधा उजागर करता है।

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The Sootr
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सुधीर नायक

यह माला पहनने के बाद तुरंत उतारने की प्रथा पर तीखा व्यंग्य है। लेखक कहते हैं कि मेहमानों को स्वागत में माला पहनाई जाती है पर तुरंत हटवा ली जाती है। यह फूलों का अपमान है। लोग मजबूरी में यह रिवाज मानते हैं; लेखक विद्रोह की कामना करते हैं।

यह आलेख माला उतारने की कुप्रथा पर प्रहार करता है। मेहमानों और मेजबानों के बीच असुविधा उजागर करता है। लेखक व्यंग्यपूर्ण लहजे में कहता है कि फूलों का सम्मान करें, रिवाज तोड़ने वाला 'सूरमा' चाहिए।

न जाने किस दुष्ट ने यह रिवाज चला दिया कि माला पहनते ही उतारनी पड़ेगी। मेजबानों का कर्त्तव्य है कि वे अतिथियों का पुष्पमालाएं पहनाकर स्वागत करें और अतिथियों का कर्त्तव्य है कि वे पहनते साथ ही माला उतारकर हाथ में ले लें या टेबल पर रख दें।

कभी-कभी तो फोटो भी नहीं खिंच पाती

कुछ बड़े वाले अतिथि अपने पीए-गनमैन को भी पकड़ा देते हैं। वे बाद में डस्टबिन में फेंक आते हैं। कितना गंदा रिवाज है। अभी ठीक से पहन भी नहीं पाए। गले ने माला को छुआ ही था। सही से फील भी नहीं आ पाया था कि उतारने का क्षण आ गया। सच्ची पूछो तो उतारने का मन किसी का नहीं करता।

सब बेमन से इस कुप्रथा को ढ़ो रहे हैं। एक को उतारते देखकर दूसरे को उतारना पड़ती है। कभी-कभी तो फोटो भी नहीं खिंच पाती और कोई दुष्ट उतारने लगता है। उसे उतारते देखकर सबकी मजबूरी हो जाती है। सब चाहते हैं कि थोड़ी देर और डली रहे। गले से ताजी-ताजी उतारी गई माला को देखकर मन कुढ़ता है। अभी न छोड़कर कि ये दिल अभी भरा नहीं। ये फिजा जरा महक तो ले। 

कोई विद्रोही नहीं जन्मा जो कहता हम नहीं उतारेंगे

किस निर्दयी ने यह नियम बनाया। सामने आ जाए तो बताऊं साले को। जरूर उसके गले में कभी माला पड़ी नहीं होगी। उसने जल-भुनकर यह नियम बनवा दिया होगा। मेरे गले में नहीं तो मैं किसी के गले में नहीं रहने दूंगा।  चलो उसने जो किया सो किया, लेकिन हम इतने बुजदिल हैं कि इस रिवाज को ढ़ोए चले जा रहे हैं। कितनी गलत प्रथाएं थी जो खत्म हो गईं। लेकिन इसमें आज तक किसी ने विद्रोह नहीं किया। कोई विद्रोही नहीं जन्मा जो कहता हम नहीं उतारेंगे। मुश्किल से तो डली है। 

ये फूलों का अपमान नहीं तो क्या है?

कवियों की ओर से भी कभी आवाज नहीं उठी। वैसे बड़े फूलों के प्रेमी बनते हैं। माला तत्काल उतरवा दो। ये फूलों का अपमान नहीं तो क्या है? मैंने तो कई बार सोचा कि नहीं उतारूंगा पर हिम्मत नहीं जुटा पाया। इंतजार है उस सूरमा का जो गुलामी की इन जंजीरों को तोड़ देगा। वह शूरवीर होगा जो किसी कार्यक्रम में पहनाई गई माला पहने-पहने ही अपने घर जाएगा।

भोपाल में वरिष्ठ कर्मचारी नेता हैं कर्मचारी नेता सुधीर नायक

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