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भारत त्योहारों और प्राचीन परंपराओं का देश है। यहां दिवाली के दूसरे दिन घर-घर में गोवर्धन पूजा और पड़वा का उत्सव मनाया जाता है। वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश के इंदौर से लगभग 55 किलोमीटर दूर, देपालपुर तहसील के गौतमपुरा गांव में एक अनोखी परंपरा निभाई जाती है। इसे हिंगोट युद्ध कहा जाता है।
ये कोई असली लड़ाई नहीं होती, न ही इसमें किसी तरह की दुश्मनी होती है। यह तो सदियों पुरानी परंपरा है, जिसे युद्ध की तरह खेला जाता है। इसका मकसद वीरता दिखाना और आपसी भाईचारा मजबूत करना होता है।
दिवाली के अगले दिन, जिसे यहां ‘धूप पड़वा’ कहा जाता है, कलंगी और तुर्रा दल के लोग आमने-सामने खड़े होते हैं। वे एक-दूसरे की ओर जलते हुए हिंगोट फेंकते हैं और इसी तरह इस पुरानी परंपरा को निभाते हैं।
इस नज़ारे को देखने के लिए हर साल करीब 15 से 20 हजार लोग दूर-दूर से यहां आते हैं।
लोक-आस्था और परंपरा
इस परंपरा की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इस आयोजन का न तो कोई औपचारिक आयोजक होता है और न ही कोई प्रायोजक। यह पूरी तरह से लोक-आस्था और परंपरा पर टिका है।
इसके बावजूद, यह एक भव्य मेले का रूप ले लेता है। इसे सुरक्षित ढंग से संपन्न कराने के लिए प्रशासन को हर साल भारी तैयारी करनी पड़ती है।
सुरक्षा का घेरा:
मैदान में 200 से ज्यादा पुलिस बल तैनात रहता है, ताकि भीड़ को नियंत्रित किया जा सके और किसी भी तरह की अप्रिय घटना को टाला जा सके।
स्वास्थ्य सेवाएं:
यह एक अग्नि-युद्ध है, जहां योद्धाओं को जलने की आशंका बनी रहती है। इसलिए तीन से चार एम्बुलेंस और 50 से ज्यादा डॉक्टर व स्वास्थ्यकर्मी की टीम पूरी मुस्तैदी के साथ मौजूद रहती है।
अन्य सुविधाएं:
फायर ब्रिगेड की गाड़ियां और नगरीय प्रशासन के अधिकारी-कर्मचारी भी व्यवस्था संभालने के लिए मैदान में मौजूद रहते हैं। यह सिद्ध करता है कि भले ही यह एक लोक-उत्सव हो, इसकी महत्ता और जोखिम को देखते हुए सरकारी तंत्र पूरी तरह से सक्रिय रहता है।
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योद्धाओं का धार्मिक अनुष्ठान
हिंगोट युद्ध के योद्धा सिर्फ खिलाड़ी नहीं होते, बल्कि वे अपनी परंपरा और आस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं। युद्ध के मैदान में उतरने से पहले, इन कलंगी और तुर्रा दल के वीरों को उनके घर पर विशेष सम्मान दिया जाता है:
गृह-प्रवेश से आशीर्वाद:
योद्धाओं को ढाल के साथ घर पर तिलक लगाया जाता है और आरती उतारी जाती है। यह रस्म उन्हें युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद देती है।
देव दर्शन:
घर से निकलने के बाद, सभी योद्धा सीधे मैदान के पास स्थित प्राचीन देवनारायण मंदिर पहुंचते हैं। वहां वे मन्दिर का दर्शन करते हैं, ईश्वर से विजय और सभी की कुशलता की प्रार्थना करते हैं। उसके बाद ही वे हिंगोट युद्ध के मैदान में प्रवेश करते हैं। यह दर्शाता है कि उनकी वीरता में भी आस्था और धर्म का भाव सर्वोपरि है।
यह परंपरा सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश के इस क्षेत्र की पहचान है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी शौर्य और भाईचारे की मशाल जलाए रखती है।
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हिंगोट युद्ध का इतिहास
हिंगोट युद्ध (गौतमपुरा का हिंगोट युद्ध) हर साल दिवाली के अगले दिन यानी पड़वा (गोवर्धन पूजा) पर खेला जाता है। यह इंदौर के देपालपुर के पास स्थित गौतमपुरा में होता है और इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।
इस अनोखे युद्ध में दो टीमें होती हैं—तुर्रा दल (गौतमपुरा गांव के योद्धा) और कलंगी दल (रूणजी गांव के योद्धा)। शाम होते ही ये दोनों टीमें युद्ध के मैदान में आमने-सामने खड़ी हो जाती हैं। लेकिन लड़ाई शुरू करने से पहले, दोनों दल के योद्धा एक-दूसरे से गले मिलते हैं और भगवान देवनारायण से आशीर्वाद लेते हैं।
जैसे ही अंधेरा होता है, आग से जलते हुए हिंगोट (एक तरह के अग्निबाण) एक-दूसरे पर फेंके जाने लगते हैं। यह परंपरा लगभग 200 साल पुरानी है। मान्यता है कि मुगल सेना से गांवों की रक्षा के लिए मराठा योद्धाओं ने इन हिंगोटों का इस्तेमाल किया था। आज यह युद्ध नफरत नहीं, बल्कि भाईचारे का प्रतीक है।
युद्ध खत्म (hingot war) होने के बाद, दोनों दल के योद्धा घायल हुए साथियों के घर जाकर उनका हालचाल पूछते हैं। यह परंपरा हमें सिखाती है कि असली वीरता किसी को हराने में नहीं, बल्कि साथ निभाने में है। पूरे आयोजन के दौरान, मैदान में सिर्फ 'जय देवनारायण' की गूंज सुनाई देती है।
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