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भोपाल।
चार माह पहले सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा-राजस्व भूमि पर यदि जंगल हैं तो यह जमीन वन भूमि होगी। बावजूद इसके,मप्र के कुछ आला अफसर,टिमरनी हरदा के जंगल की करीब 8 हजार एकड़ जमीन पर काबिज राधा स्वामी सत्संग सभा आगरा को फायदा पहुंचाने पर तुले हैं। आखिर कौन हैं,वे अफसर जो कोर्ट ही नहीं,अपने ही सहयोगियों की सिफारिश को भी दरकिनार कर निजी संस्था के शुभचिंतक व संरक्षक बने हुए हैं।
सरकार को इसकी भनक भी नहीं
बीते सप्ताह वन विभाग की टाइम​ लिमिट यानी टीएल बैठक में टिमरनी राजा बरारी इस्टेट के दो साल से लंबित भुगतान का मामला प्रमुखता से रखा गया। इस उच्च स्तरीय बैठक में संस्था को साल 2022—23 व 2023—24 की उसकी लंबित चार करोड़ की रकम अदा करने के निर्देश भी ​दिए गए। जिस पर तीन साल पहले पूर्व पीसीसीएफ उत्पादन एच यू खान ने रोक लगाई थी,लेकिन संस्था को फायदा पहुंचाने वाली इस नस्ती को एक बार फिर पंख लग गए हैं। संभव है,सरकार को इसकी भनक भी न हो।
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अफसर पहले भी करते रहे संस्था को उपकृत
इस ​निजी संस्था को उपकृत करने का यह पहला अवसर नहीं है। तत्कालीन मुख्य सचिव राकेश साहनी व वन​ विभागप्रमुख अनिल ओबेराय भी यह काम करते रहे हैं। हालांकि अब दोनों की अफसर​ दिवंगत हैं,लेकिन अपने जीवनकाल में पद पर रहते हुए और रिटायरमेंट के बाद भी वे संस्था के संरक्षक की भूमिका में रहे। उन्होंने पद व प्रभाव का पूरा इस्तेमाल संस्था को लाभ पहुंचाने में किया।
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मनोज श्रीवास्तव रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाला
भोपाल के तत्कालीन संभागायुक्त मनोज श्रीवास्तव की रिपोर्ट इसकी बानगी है। जिसे तत्कालीन मुख्य सचिव साहनी ने रेवन्यू बोर्ड को भेजा और वहां यह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में दफन हो गई। दरअसल,साल 2008 में तत्कालीन शिवराज सरकार ने भू-माफिया के खिलाफ अभियान छेड़ा था।
जमीन पर अवैध कब्जे से जुड़े मामलों की जांच के लिए मनोज श्रीवास्तव के नेतृत्व में एक सदस्यीय जांच समिति बनीं। पूर्व संभागायुक्त ने भी पूरी शिद्दत के साथ रिपोर्ट तैयार कर सरकार को सौंपी।
इसमें टिमरनी का यह केस भी शामिल रहा। इसमें उन्होंने संस्था के कब्जे को अवैध व उसके नाम जंगल की लीज को अव्यवहारिक बताते हुए इसे निरस्त करने की सिफारिश की थी।
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हाईकोर्ट के फैसले को किया दरकिनार
साल 2016 में एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद मप्र हाईकोर्ट ने भी राधा स्वामी सत्संग सभा के खिलाफ फैसला सुनाया। कोर्ट ने तब राज्य सरकार को सभा के कब्जे वाले जंगल को तीन माह में वन भूमि अधिसूचित करने के निर्देश दिए। लेकिन जिम्मेदार अफसरों ने उच्च न्यायालय के इस आदेश को भी हवा में उड़ा दिया।
लीज निरस्त करने व वसूली की सिफारिश
गत 15 मई को वन भूमि से जुड़े केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद टिमरनी जंगल का यह मामला फिर सरगर्म है। नर्मदापुरम वन वृत के मुख्य वन संरक्षक (सीसीएफ) अशोक कुमार सिंह की ताजा रिपोर्ट ने वन​ विभाग में हलचल मचा दी है।
उन्होंने राजा बरारी इस्टेट मामले में अब तक हुई जांच व कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए सत्संग सभा की लीज निरस्त करने व संस्था से वसूली की सिफारिश की है।
सीसीएफ ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि आदिवासियों के कल्याण के नाम पर संस्था लगातार लीज शर्तों का उल्लंघन करती रही है। कुछ इसी तरह की सिफारिश पूर्व पीसीसीएफ नरेंद्र कुमार भी अपनी रिपोर्ट में पहले कर चुके हैं।
संस्था के शुभचिंतक अफसर हुए​ सक्रिय
सीसीएफ नर्मदापुरम की रिपोर्ट पर सरकार कोई निर्णय ले इससे पहले ही सत्संग सभा के पैरोकार अफसर कब्जा बचाने व संस्था को उसका लंबित भुगतान कराने के लिए सक्रिय हैं। पिछली टीएल बैठक में भुगतान अदायगी को लेकर गहन चिंतन हुआ।
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काम व खर्च सरकार का,फायदा संस्था का
देश में संभवतया अपने किस्म का यह अनोखा मामला है। जिसमें इस बेशकीमती सागौन वाले जंगल से जुड़े सारे खर्च सरकार उठाए। सभी जरूरी काम विभागीय अमला करे और इमारती लकड़ी की नीलामी से होने वाली करोड़ों की आय निजी संस्था को सौंप दी जाए।
वन भूमि पर काबिज आदिवासियों के ​कथित उत्थान के नाम पर यह खेल बीते करीब 70 सालों से जारी है। संस्था की मौजूदा आय ही करीब दो करोड़ सालाना है।
सत्संग सभा ने संभाली अंग्रेज की विरासत
राधा स्वामी सत्संग सभा के कब्जे वाले जंगल को राजा बरारी इस्टेट नाम एक अंग्रेज फ्रांसिस मरे ने दिया था। जिसने अपने ऐशगाह के तौर पर टिमरनी के इस जंगल पर कब्जा किया। मरे के निधन के बाद उनकी पत्नी बिनीफ्रेड इसकी मालकिन बनीं।
14 नवंबर 1919 में बिनीफ्रेड ने यह जमीन अपने नजदीकी रहे तत्कालीन रियासतदार सर आनंद स्वरूप को बेच दी। वर्ष 1924 में आनंद स्वरूप ने यह भूमि राधा स्वामी सत्संग सभा को गिफ्ट कर दी।
पंजीयन बाद में,जमीन पहले हॉसिल की
वर्ष 1950 में जमींदारी उन्मूलन के बाद राजा बरारी इस्टेट को भी राजस्व भूमि घोषित किया गया,लेकिन तीन साल बाद ही सत्संग सभा ने 99 साल की लीज पर अपने नाम आवंटित करा लिया।
सोसायटी ​​रजिस्ट्रेशन एक्ट 1960 के तहत सत्संग सभा बाद के वर्षों में पंजीकृत हुई,लेकिन आदिवासी कल्याण के नाम पर 8 हजार एकड़ का यह रकबा पहले ही उसके नाम हो गया।
लीज निरस्तीकरण में हैं कई पेंचीदगी
सूत्रों का दावा है कि सत्संग सभा का लीज अनुबंध काफी पेंचीदा है। यह सत्संग सभा व तत्कालीन गवर्नर के बीच हुआ था। तब यह जमीन राजस्व का हिस्सा थी। बाद में इसे वन भूमि घोषित किया गया।
अनुबंध कहता है कि लीज निरस्त करने का फैसला राजस्व बोर्ड न्यायालय ही ले सकता है,जबकि वन अधिनियम के तहत वन भूमि का निराकरण राजस्व न्यायालय नहीं कर सकता।
ऐसे में सरकार सीसीएफ नर्मदापुरम की रिपोर्ट पर अमल भी करती है तो उसे एक जटिल प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा,लेकिन यह सरकार की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है।
'यह विभागीय प्रक्रिया,इस पर डिस्कस नहीं '
सत्संग सभा के कब्जे वाली जंगल को लेकर वन अफसरों का एक धड़ा,जहां लीज निरस्ती व संस्था से वसूली करने के पक्ष में है। वहीं,दूसरा धड़ा संस्था के साथ खड़ा है। जो समयबद्ध काम को पूरा करने वाली टाइम लिमिट बैठक में संस्था के लंबित भुगतान के विषय को शामिल कर इसे पूरा कराना चाहता है।
इसे लेकर विभाग की मौजूदा पीसीसीएफ उत्पादन बिंदु शर्मा कहती हैं-यह विभागीय प्रक्रिया का हिस्सा है। मैं इस बारे में अपना व्यू डिस्कस नहीं कर सकती।