क्या कांग्रेस में चल रहा है गहलोत का जादू, क्या वे पायलट पर हैं भारी, जानिए इस सवाल का पूरा जवाब

बिहार में जिस तरह महागठबंधन के बीच सीट बंटवारा कराने में राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को सफलता मिली है, उससे जाहिर है कि पार्टी में उनका पलड़ा सचिन पायलट पर भारी है।

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Amit Baijnath Garg
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योगेन्द्र योगी @ जयपुर

राजस्थान में विधानसभा चुनाव में हार के बाद लग यही रहा था कि पूर्व सीएम अशोक गहलोत का राजनीतिक सूरज डूबने की तरफ है। चुनाव में हार के बाद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की नाराजगी भी सामने आई थाी। इसके बावजूद राजनीति के पक्के और मंझे हुए खिलाड़ी गहलोत ने धैर्य का साथ नहीं छोड़ा। गहलोत का पार्टी में जादू फिर चल निकला।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बिहार में जिस तरह महागठबंधन के बीच सीट बंटवारा कराने में गहलोत को सफलता मिली है, उससे जाहिर है कि पार्टी में उनका पलड़ा सचिन पायलट पर भारी है। विश्लेषकों के अनुसार, गहलोत कांग्रेस के भरोसे पर न सिर्फ खरे उतरे हैं, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि खासतौर से राजस्थान की राजनीति में उनका कोई सानी नहीं है। गहलोत इन दिनों अपनी सक्रियता को लेकर चर्चा में हैं।

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सुलझा दी सीट समझौते की गुत्थी

पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पार्टी हाईकमान ने बिहार में लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) से सीट शेयरिंग को लेकर चल रही रस्साकसी से निपटने के लिए कमान दी थी। कहीं न कहीं हाईकमान को यह उम्मीद थी कि ठंडे मिजाज और दूरदृष्टि वाले गहलोत ही कोई समझौता करा सकते हैं। गहलोत हाईकमान के इरादे पर खरे उतरे।

दरअसल, चुनाव की घोषणा के बाद से कांग्रेस और राजद में सीट शेयरिंग का मसला उलझा हुआ था। राजद चाहती थी कि तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर घोषित किया जाए। कांग्रेस उहापोह की हालत में थी। पहले चरण की नामांकन की तारीख नजदीक आने तक दोनों दलों में सुलह नहीं हो पाई। ऐसे में गहलोत को तारणहार के तौर पर बिहार भेजा गया। गहलोत ने इसे शानदार तरीके से अंजाम भी दिया।  

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कृष्णा अल्लावरु नहीं कर पाए कमाल

बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस ने कृष्णा अल्लावरु को प्रदेश प्रभारी बनाया था। अल्लावरु सीटों पर समझौते की पुरजोर कोशिश कर रहे थे, लेकिन कामयाबी हाथ नहीं लगी। महागठबंधन का कोई भी दल न तो सीटों के बंटवारे पर कुछ बोल पाया और ना ही संयुक्त चुनाव प्रचार को लेकर कोई बयान आ रहा था।

ये सब कुछ संभव कर दिखाया गहलोत ने। उन्होंने दीपावली के मौके पर लालू परिवार को शुभकामनाएं देने के लिए फोन किया और महागठबंधन की गांठ खुल गई। गहलोत पटना पहुंचे, बंद कमरे में लालू-तेजस्वी से बात हुई, लेफ्ट पार्टियों और मुकेश सहनी से चर्चा की, उसके बाद तेजस्वी को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया गया। गहलोत ने लगे हाथ सहनी को उपमुख्यमंत्री का चेहरा बनाने की भी घोषणा कर दी।

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गहलोत पर भरोसा मजबूरी भी

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि गहलोत पर भरोसा करना कांग्रेस की मजबूरी भी है। कांग्रेस में गहलोत जैसे कद्दावर नेता कम बचे हैं। हालांकि मल्लिकार्जुन खड़गे को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने से पहले राहुल गांधी ने गहलोत को यह मौका दिया था, लेकिन गहलोत किसी भी सूरत में सीएम पद छोड़ने को राजी नहीं हुए। तब राहुल गांधी के समक्ष मुश्किल यह थी कि पार्टी का होने वाला राष्ट्रीय अध्यक्ष एक राज्य का मुख्यमंत्री कैसे बना रह सकता है। इसके अलावा पार्टी में उदयपुर अधिवेशन के दौरान एक पद एक व्यक्ति के सिद्धांत को भी मंजूरी दी थी। 

रणनीति-कुशलता में माहिर गहलोत

पार्टी में लगभग विद्रोह के हालात बन गए। आलाकमान के प्रस्ताव की उपेक्षा करके गहलोत मुख्यमंत्री बने रहे और उनके नेतृत्व में ही राजस्थान में विधानसभा का चुनाव लड़ा गया, जिसमें कांग्रेस हार गई। उसके बाद से लग यही रहा था कि कांग्रेस में गहलोत के गुंजाइश ज्यादा नहीं बची है। गुजरात में हुए सम्मेलन में भी गहलोत को तरजीह नहीं दी गई। 

वह वीडियो भी चर्चित रहा, जब खड़गे पहली पंक्ति के नेताओं से हाथ मिला रहे थे, तब गहलोत के करीब आते ही राहुल गांधी ने उन्हें आगे बढ़ा दिया। यहां तक कि गहलोत को मंच पर भी यथोचित स्थान नहीं मिला। पार्टी ने गहलोत से खाली हुए राजनीतिक स्थान को पायलट से भरने की कोशिश की, लेकिन गहलोत जैसी रणनीति और कुशलता पायलट में नजर नहीं आई।

कांग्रेस में बड़े नेताओं की कमी

कांग्रेस की विवशता यह भी रही कि वरिष्ठ नेताओं की कांग्रेस में कमी है। इससे गहलोत पर ही फिर से भरोसा करना कांगेस के लिए लाजिमी हो गया। विगत कुछ साल में करीब दर्जन भर से अधिक नेताओं ने कांग्रेस छोड़ी है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व सीएम गुलाम नबी आजाद पार्टी नेतृत्व और पार्टी में निर्णय लेने की शैली पर सवाल उठा रहे थे। इस मसले पर उन्होंने कांग्रेस के दूसरे 22 नेताओं के साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र भी लिखा था।

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ये कांग्रेस नेता कह चुके अलविदा

कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं की एक लंबी फेहरिस्त है। इनमें यूपी से कांग्रेस नेता आरपीएन सिंह, कांग्रेस से केंद्र में मंत्री और सांसद रह चुके जितिन प्रसाद, पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के पूर्व महाराष्ट्र अध्यक्ष और सांसद रह चुके अशोक चव्हाण, अमेठी से सांसद और विधायक रहने वाले संजय सिंह, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और गांधी परिवार के करीबी अमरिंदर सिंह, उद्योगपति और बतौर कांग्रेस के नेता के तौर पर पहचान रखने वाले नवीन जिंदल, पंजाब के लुधियाना से सांसद रवनीत सिंह बिट्टू, असम से सांसद रह चुकीं और कांग्रेस से लंबे समय तक जुड़ी रही सुष्मिता देव।

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इन्होंने भी बना ली दूरी

इसी तरह कांग्रेस में प्रवक्ता रह चुकी प्रियंका चतुर्वेदी, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी के बेटे अनिल एंटनी, कांग्रेस के प्रवक्ता रह चुके और झारखंड और राजस्थान से कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमा चुके गौरव वल्लभ, मध्य प्रदेश की सियासत के बड़े चेहरे और पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, मनमोहन सिंह सरकार में केंद्र में मंत्री रह चुके मिलिंद देवड़ा और मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके और कांग्रेस के टिकट पर मुंबई से सांसद रह चुके संजय निरुपम सहित कई वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस को अलविदा कहा।

ऐसे में गहलोत सरीखे चुनिंदा नेता ही पार्टी में बचे रहे। गहलोत ने विधानसभा चुनाव में हार का ठीकरा फोड़े जाने के बावजूद पार्टी नहीं छोड़ी। इस सब्र का फल मीठा निकला। बिहार में राजद से समझौते पर मोहर लगवाकर गहलोत का पार्टी में कद बढ़ गया है।

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