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Photograph: (the sootr)
Jaipur. पूर्व उपराष्ट्रपति और राजस्थान के तीन बार मुख्यमंत्री रहे भैरोंसिंह शेखावत की आज 102वीं जयंती है। शेखावत की जयंती उनके छह दशक तक भारतीय राजनीति में सशक्त हस्ताक्षर की यादें ताजा कर देती है। उनकी सादगी, जनसंपर्क और ईमानदार छवि के चलते राजस्थान के लोगों ने उन्हें बाबोसा जैसा प्यार दिया, वहीं जमींदारी उन्मूलन कानून को समर्थन देकर आम जनता की आवाज बनें, तो सती प्रथा के खिलाफ कठोर निर्णय लेकर समाज की परवाह नहीं की।
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संबंध बनाए रखने में माहिर
अपनी ही पार्टी की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के कार्यकाल में जनहित में फैसले नहीं होने पर खुलकर विरोध करने से भी नहीं चूके। ऐसे साहसिक फैसलों से पार्टी और राजस्थान में उनकी बेदाग और दबंग नेता की छवि बनी, जो उनके जीवनपर्यंत तक साथ रही। शेखावत राजस्थान के साथ देश के उन चंद नेताओं में से शुमार रहे, जो अपनी विचारधारा और सिद्धांतों से समझौता किए बिना ही निजी संबंधों को बनाए रखने में माहिर थे।
60 साल का राजनीतिक अनुभव
करीब साठ साल के राजनीतिक जीवन में शेखावत ने सत्यनिष्ठता से काम किया और समाज में महत्वपूर्ण बदलाव लाए। राजस्थान के सीकर जिले के खाचरियावास गांव में पैदा हुए शेखावत बाबोसा के साथ शेर-ए-राजस्थान के नाम से भी मशहूर रहे। आज उनकी जयंती पर उनके राजनीतिक जीवन से जुड़े कुछ ऐसे ही साहसिक फैसले और किस्से आपके सामने हैं, जो उनके जीवन में आदर्श और व्यवहार को दर्शाते हैं।
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सामंतों के खिलाफ हुए, जनसंघ की भी नहीं सुनी
शेखावत ऐसे राजनेता रहे हैं, जिन्होंने समाज और पार्टी-पॉलिटिक्स से ऊपर उठकर जनहित की राजनीति की। वे समाज की दकियानूसी का खुलकर विरोध करते थे, चाहे उन्हें समाज और समाज के नेताओं का खुलकर विरोध ही क्यों ना झेलना पड़ा हो। आजादी के बाद लोकतंत्र यात्रा की शुरुआत में ही वे दांतारामगढ़ से विधायक चुने गए। 1954 में जब वे प्रथम राजस्थान विधानसभा के दौरान जनसंघ पार्टी के नेता थे।
पार्टी छोड़कर जाने को कह दिया
तब जमींदारी भूमि उन्मूलन कानून को लेकर धर्मसंकट खड़ा हो गया था। तब जनसंघ पर सामंती विचारधारा के नेताओं का प्रभुत्व था। वे इस कानून का विरोध करने के पक्ष में थे, लेकिन तब शेखावत ने इस कानून का समर्थन करके सबको चौंका दिया। वे इस कानून को आम किसान के पक्ष में मानते थे। उन्होंने जनसंघ के नेताओं की परवाह नहीं की। जो नेता उनके विरोध में थे, उन्हें पार्टी छोड़कर चले जाने को कह दिया था। इस कानून से जमींदारों व सामंतों की जमीनें खेती करने वाले किसानों को मिल पाई थीं। बाद में पार्टी को शेखावत का समर्थन करना पड़ा।
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समाज की दकियानूसी का भी विरोध
इसी तरह दिवराला सीकर में रूप कंवर सती प्रकरण में उमड़े राजपूत समाज की दकियानूसी का खुलकर विरोध किया और सती प्रथा को गलत बताया। तब उनका सामाजिक नेताओं ने विरोध भी किया, लेकिन वे डिगे नहीं और सती प्रथा के खिलाफ बोलते रहे। तब समाज के तथाकथित ठेकेदारों के उजुल-फिजूल फैसलों का मुंहतोड़ जवाब दिया। इससे यह वातावरण बनने लगा कि शेखावत समाज के हितैषी नहीं हैं और वे राजपूत समाज के सबसे बड़े शत्रु हैं। हालांकि उन्होंने कभी भी जात-पात, धर्म और सिद्धांत की राजनीति से समझौता नहीं किया। अपने उसूलों पर सियासत करते रहे।
बदले की भावना से राजनीति से तौबा
शेखावत तीन बार मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उन्होंने कभी भी बदले भावना से राजनीति नहीं की। चाहे उनके विदेश में इलाज के दौरान सरकार को गिराने में लगे पूर्व कांग्रेस नेता भंवरलाल शर्मा हो या भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत। सत्ता में रहते हुए उन्होंने कभी भी बदले की भावना से सियासत नहीं की। इलाज के बाद जब जयपुर लौटे तो उनसे मिलने आए कांग्रेस नेता भंवरलाल शर्मा का खूब आदर-सत्कार किया।
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विरोधियों से भी पूरा स्नेह
वे अपने विरोधियों से उतने ही स्नेह से मिलते थे और सुनते थे, जितने अपने पार्टी के नेता व विधायकों से। यहीं कारण है कि उनके संबंध राजस्थान से ऊपर देश के सभी राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेताओं से रहे। साठ दशक के राजनीतिक जीवनकाल में जनसंघ, जनता पार्टी और फिर भारतीय जनता पार्टी को प्रदेश में स्थापित किया। सैकड़ों नए नेता राजनीति में तैयार किए। उनकी कार्यशैली का हर कोई मुरीद होता था। जब भी कोई राजनीतिक संकट पैदा होता था, तो हर बड़े फैसलों में शेखावत का दखल रहता था।
जनसंपर्क में माहिर थे शेखावत
1951 में वे जनसंघ के जरिए राजनीति में आये, उससे पहले राजस्थान पुलिस में बतौर सब इंस्पेक्टर कार्यरत थे। बाद में उन्होंने नौकरी से त्याग-पत्र दिया और राजनीति में सक्रिय हो गए। 1952 में वे पहली बार जनसंघ के बैनर तले दांतारामगढ़ से विधायक बने। तब उनकी पार्टी के सात विधायक जीते थे। विधायक बनते ही उन्होंने जमीनी राजनीति को जनसंघ का व्यावहारिक राजनीतिक कर्म बना लिया था।
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हमेशा आम आदमी की तरह रहे
शेखावत बहुत ही सामान्य परिवार से आते थे। राजनीतिक जीवन में उन्होंने राजनीतिक ऊंचाई कुछ भी हासिल कर ली हो, लेकिन वे एक आम इंसान ही बने रहे। वे जनसंपर्क के माहिर माने जाते थे। अच्छे और गर्मजोशी से मिलना उनकी आदत में शुमार था। सादगी और जनसंपर्क में माहिर होने के कारण प्रदेश भर में उनकी अलग ही पहचान बनी। वे भी अलग-अलग क्षेत्रों से चुनाव लड़कर जीतते रहे और पार्टी को मजबूत करते रहे।
अंत्योदय योजना सबसे बड़ी उपलब्धि
शेखावत ने मुख्यमंत्री रहते हुए अनेक कार्य किए, लेकिन कुछ कार्य ऐसे थे जो यादगार हो गए। आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव के बाद जब वे पहली बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने आम आदमी और गरीबों को ध्यान में रखते हुए अंत्योदय योजना लागू की। कोई भूखा नहीं सोए सभी को अन्न मिले, इसके लिए यह योजना बहुत ही कारगर रही। लाखों परिवारों को इसका लाभ मिला।
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जयप्रकाश नारायण ने किया सम्मान
शेखावत के विकास कार्यों में निष्पक्षता और ईमानदारी रही, इसके लिए शिलापट्ट लगाकर कार्यों का विवरण लिखने के आदेश दिए। 1993 में वे फिर मु्ख्यमंत्री बने तो उन्होंने ग्राम पंचायतों में होने वाले विकास कार्यों का शिलापट्ट बनाए जाने और नागरिकों द्वारा जानकारी मांगने पर सूचना देने के आदेश दिए थे। शेखावत पहले मुख्यंत्री थे, जिन्होंने सूचना का अधिकार आंदोलन को आधार प्रदान किया था। जनकल्याणकारी योजनाओं के चलते समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने प्रभावित होकर शेखावत का पटना में सार्वजनिक सम्मान किया था।
वसुंधरा राजे के शासन का भी विरोध किया
शेखावत आम आदमी की राजनीति करते थे। उनकी सरकार की योजनाओं और कार्यक्रमों में आम आदमी का कल्याण सबसे ऊपर रहता था। वे इसके लिए हमेशा संघर्षरत रहे। सत्ता में भी और पार्टी के भीतर भी। हमेशा एक योद्धा की तरह राजनीति की। जब वे उपराष्ट्रपति चुने गए तो उन्होंने राजस्थान में भाजपा की उत्तराधिकारी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को बनाया। पांच साल के कार्यकाल में उन्हें लगा कि वसुंधरा राजे ने जनहित में शासन नहीं किया तो उन्होंने और दूसरे नेताओं ने वसुंधरा राजे का विरोध करने से भी नहीं चूके।
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पार्टी की भी परवाह नहीं की
इसके लिए पार्टी की भी परवाह नहीं की। पार्टी फोरम पर भी वे आम आदमी के लिए राजनीति का मुद्दा उठाते रहे और हमेशा सावचेत करते रहे कि आम आदमी की राजनीति ही असली राजनीति है। शेखावत राजनीति में बेदाग व्यक्तित्व थे। अपने निजी संबंधों के लिए कभी विचारधारा से समझौता नहीं किया, लेकिन निजी संबंधों में राजनीतिक विचारधारा को भी कभी आड़े नहीं आने दिया।
बड़े भाई ने छोटे भाई को दिलाया टिकट
1952 में शेखावत ने पहला विधानसभा चुनाव लड़ा था। जनसंघ को दांतारामगढ़ सीट पर उम्मीदवार नहीं मिल रहा था। तब जनसंघ के नेता बिशन सिंह शेखावत ने अपने छोटे भाई भैरोंसिंह का नाम पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को सुझाया। इस पर भैरोंसिंह को टिकट दे दिया। तब सीकर जाने के लिए उनके पास पैसे भी नहीं थे। तब अपनी पत्नी सूरज कंवर से 10 रुपए लेकर सीकर गए। इस चुनाव में शेखावत ने 2833 मतों से जीत हासिल की थी। उन दिनों गांवों में ना तो सड़कें थीं और ना ही सही रास्ते। ऐसे में भैरोंसिंह को प्रचार के लिए ऊंट पर सवारी करके जाना पड़ा।
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ऑब्जर्वर के रूप में वाजपेयी आए
शेखावत के पहली बार मुख्यमंत्री बनने की कहानी भी बड़ी रोचक है। आपातकाल के बाद राजस्थान में भाजपा की सरकार दूसरे दलों के सहयोग से बनी। ऐसे में मुख्यमंत्री के नाम को लेकर घमासान चला। तब पार्टी की बड़ी नेता गायत्री देवी थीं। वह और दूसरे नेता एक राजपरिवार घराने से विधायक बने सदस्य को मुख्यमंत्री बनाने चाहते थे। तब शेखावत का नाम नहीं था।
ऑब्जर्वर के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी आए थे। उन तक समर्थकों के जरिए शेखावत का नाम सुझाया गया। पार्टी में योगदान के बारे में बताया गया। साथ ही राजपरिवार घराने से मुख्यमंत्री बनाए जाने पर विपक्षी द्वारा मुद्दा मनाने और जनता में अच्छा मैसेज नहीं जाने संबंधित सुझाव दिए गए।
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भाभड़ा ने किया वाजपेयी का समर्थन
तब जयपुर के होटल में आयोजित वरिष्ठ नेताओं की बैठक में वाजपेयी ने यह कहते हुए सबको चौंकाया कि मैं जानना चाहता हूं कि क्या भैरोंसिंह को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है? इस पर हरिशंकर भाभड़ा ने वाजपेयी का समर्थन करते हुए कहा कि शेखावत के नाम पर भी विचार होना चाहिए। तब शेखावत विधानसभा सदस्य नहीं थे। वे मध्य प्रदेश से राज्यसभा सांसद थे। वाजपेयी के समर्थन से वे पहली बार मुख्यमंत्री बने।
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