नेतृत्व अगर सर्वप्रिय होना चाहता है तो शिव के समान सहज, सुलभ और सबके प्रति कल्याणकारी बने

देवता और दैत्य परस्पर शत्रु हैं, तब देवाधिदेव महादेव दैत्यों के लिए भी वंदनीय क्यों हैं ? शिव की इस सर्वप्रियता का रहस्य उनकी कल्याणकारी शक्ति और त्यागपूर्ण सरलता में निहित है।

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Rahul Garhwal
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Shiva on Mahashivratri
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भगवान शिव सर्वप्रिय देवता हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने उन्हें जगतवंद्य कहा है। ‘संकर जगत् वन्द्य जगदीसा’ अर्थात भगवान शंकर संसार के स्वामी हैं और समस्त संसार उन्हें वंदनीय मानता है। देवता, मनुष्य, ऋषि-मुनि सब उन्हें नमन करते हैं। यहां प्रयुक्त सब शब्द में देवताओं, मनुष्यों और साधारण मनुष्यों से अधिक अलौकिक शक्ति सम्पन्न मुनियों के साथ यक्ष, किन्नर, नाग, असुर आदि अन्य जातियां भी समाहित हो जाती हैं।

महादेव दैत्यों के लिए भी वंदनीय क्यों ?

भगवान शिव जगतवंद्य होने के कारण सबके प्रिय आराध्य हैं। इस संदर्भ में यह विचारणीय प्रश्न है कि जब देवता और दैत्य परस्पर शत्रु हैं तब देवाधिदेव महादेव दैत्यों के लिए भी वंदनीय क्यों हैं ? दैत्य वरदान प्राप्ति के लिए सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा की शरण में जाते हैं। उनकी तपस्या करते हैं किन्तु उनकी पूजा नहीं करते। दैत्य विष्णु से कभी कोई याचना नहीं करते परन्तु शिव के समक्ष सदा नतमस्तक मिलते हैं। शिव की इस सर्वप्रियता का रहस्य उनकी कल्याणकारी शक्ति और त्यागपूर्ण सरलता में निहित है। नेतृत्व यदि सर्वप्रिय होना चाहे तो उसे भी शिव के समान सहज सुलभ और सबके प्रति कल्याणकारी बनना चाहिए।

शिव से भी किसी का विरोध नहीं

शिव का एक अर्थ कल्याण भी है। कल्याण सब चाहते हैं, देवता भी और दैत्य भी। अतः शिव के भक्त सभी हैं। कल्याण-कामना से किसी का विरोध नहीं होता। इसलिए शिव से भी किसी का विरोध नहीं है। शिव वैदिक-पौराणिक देवता होने के साथ-साथ लौकिक धरातल पर भी एक ऐसे नेहूत्व का प्रतीकार्थ देते हैं जो सबका भला चाहता है, सबका भला करता है, सबके लिए सुलभ है और भोला-भंडारी है। जो वीतरागी है, संन्यासी है, जिसका अपना अपने लिए कुछ नहीं, अपना सबकुछ सबके लिए है। जो समन्वय की सामर्थ्य से युक्त है और विरोधों में सामंजस्य बैठाना जानता है, जिसे अपयश, अपमान एवं निन्दा का विष पीना-पचाना और समाज के लिए घातक भयानक विषधरों को वश में करना आता है। ऐसा ही व्यक्तित्व शिव हो सकता है। लोक के लिए शुभ हो सकता है और सर्वप्रिय तथा जगतवंद्य बन सकता है। शिव के कंठ में, भुजाओं में नाग लिपटे हैं। नाग संसार के लिए भयकारी हैं किन्तु जब वे शिव के नियंत्रण में उनकी देह पर मालाओं के समान शोभायमान होते हैं, तब लोक के लिए भय का कारण नहीं रह जाते। लौकिक संदर्भ में नाग अपराधी ताकतों के प्रतीक हैं। लोक के कल्याण के लिए इनका नियंत्रण आवश्यक है। शिव वही हो सकता है जो इन पर नियंत्रण कर सके। नेतृत्व की शिवता शिव जैसी नियंत्रण शक्ति की अपेक्षा करती है।

शिव कल्याणकारी

शिव को त्रिलोचन कहा गया है। दो नेत्र तो सबके पास हैं। सब उनसे देखते हैं, अनुमान लगाते हैं और निष्कर्ष निकालकर कार्य करते हैं किन्तु शिव ज्ञान के तृतीय नेत्र से देखकर विचार करते हैं। सही निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए ज्ञान के तृतीय नेत्र का सदुपयोग शिव नेतृत्व की परम उपलब्धि है। ज्ञान का यही तृतीय नेत्र लोक-कल्याण के लिए आवश्यकता पड़ने पर रौद्र रूप धारण कर अशिव शक्तियों के संहार का कारण भी बनता है। समाज की सुरक्षा के लिए नेतृत्व के तीसरे नेत्र का संहारक रौद्र रूप लेना और उसकी कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में उसका विचार सम्पन्न ज्ञान रूप में परिणत होना आवश्यक है। भगवान शंकर के इस तीसरे नेत्र का रहस्य समझकर ही कोई नेतृत्व समाज को समृद्धि और सुरक्षा देकर सर्वप्रिय बन सकता है। लच्छेदार बातों और कोरे वादों की बौछारें समाज को बहका सकती हैं, बहला सकती हैं, उसे रिझाकर वोट बटोर सकती हैं, लेकिन समाज का भला नहीं कर सकतीं।

शिव की देह पर लगी भस्म का अंगराग उनकी निष्कामता, निर्लोभता और निर्लिप्तता का प्रतीक है। सर्वप्रिय बनने के लिए उत्सुक नेतृत्व को व्यक्तिगत सुख सुविधाओं और वैभवपूर्ण प्रदर्शनों की विलासप्रियता पर अंकुश लगाना चाहिए। निजी महत्वाकांक्षाएं नेता को इंद्र बना सकती हैं, शिव नहीं और इन्द्र कभी सर्वप्रिय नहीं हो सकते। इंद्र व्यवस्था चला सकते हैं किन्तु समाज पर आई विपदाओं के निवारण के लिए सक्षम नहीं हो सकते। इस कार्य के लिए उन्हें शिव आदि अन्य शक्तियों की शरण में आना पड़ता है। नेतृत्व का इन्द्र बन जाना समाज के लिए शुभ नहीं होता। समाज की शुभता तो शिवता की विलासिता विहीन भस्मरागमयी भूमि में ही विलसती है।

नित्य शुद्ध हैं शिव

भगवान शिव नित्य शुद्ध हैं। शुद्धता का संधारण मन, वाणी और कर्म से होता है। शिव की कथाओं में कोई प्रसंग ऐसा नहीं मिलता जब उन्होंने कहीं किसी से कोई छल किया हो। समाज का नेतृत्व करने वाला व्यक्ति भी यदि शुद्ध हो, छल-फरेब न करे, झूठ न बोले तो उसकी विश्वसनीयता समाज में स्वतः बढ़ जाती है और तब उसकी सर्वप्रियता का पथ प्रशस्त होने लगता है। नेतृत्व की शुचिता समाज में भी सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करके समाज से भ्रष्टाचार दूर कर सकती है। लोकजीवन में आचरण की पवित्रता नेतृत्व के शिवत्व की शुचिता पर निर्भर है। शुद्धता के अभाव में सामाजिक लोकप्रियता संभव नहीं।

सर्वप्रिय होने के लिए त्याग का निर्वाह परम आवश्यक

निजी आवश्यकताओं में न्यूनता शिव का आदर्श है। अन्न, वस्त्र और आवास लोकजीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं। शिव सबके लिए इन आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। शिव की पत्नी भगवती पार्वती का एक नाम अन्नपूर्णा भी है। माता अन्नपूर्णा की शिवगृह में उपस्थिति सबका पेट भरने की गारंटी है। अन्नपूर्णा सुख समृद्धि देकर लोक में वस्त्र और आवास की लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति का भी प्रतीकार्थ हैं। शिव और अन्नपूर्णा की यह पौराणिक युति नेतृत्व और नीति में सामंजस्य को संकेतित करती है।

 

लोक का कल्याण चाहने वाले नेता की नीति ऐसी होनी चाहिए जो सबकी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। स्वयं शिव इन अनिवार्यताओं से भी परे हैं। वे दिगम्बर हैं, उन्हें अन्न और आवास भी नहीं चाहिए । वस्त्र के नाम पर बाघम्बर, भोजन के लिए बिल्वपत्र-भांग-धतूरा और आवास के लिए कैलाश अथवा श्मशान। शिव से संदर्भित ये उपादान संकेतित करते हैं कि सर्वप्रिय होने के लिए त्याग का निर्वाह परम आवश्यक है। नेता को अपने लिए वे सुविधाएं भी नहीं चाहिए जिनकी व्यवस्था वह अन्य के लिए अनिवार्य रूप से करता है।

खुद विष पीकर औरों को अमृत देते हैं शिव

शिव का विषपान लोक कल्याण के लिए आवश्यक शर्त है। अमृत सब चाहते हैं, विष कोई नहीं चाहता। यश की अभिलाषा सब करते हैं किन्तु लोक की भलाई के लिए अपयश स्वीकार करने को कोई विरला ही तैयार होता है। जो नेता निर्भय होकर समाज के कल्याण के लिए अपमान और अपयश का विष पचा जाता है, वही सर्वप्रिय बन पाता है। समाज को नेतृत्व के लिए सदा शिव की प्रतीक्षा रहती है क्योंकि शिव ही स्वयं विष पीकर औरों को अमृत प्राप्त करने का अवसर प्रदान करते हैं।

 

शिव करुणावतार हैं। अतः नेता को भी करुणा से समृद्ध होना चाहिए। जब तक नेतृत्व में जनता के प्रति करुणा का कोमल भाव नहीं होगा। तब तक वह उसके दुख दूर करने के लिए सच्चे प्रयत्न भी नहीं कर पाएगा। शिव की भांति करुणा करके सबकी पीड़ा हरने वाला नेता ही सबका प्रिय बन सकता है। आज अभावों से जूझती, असुरक्षित अनुभव करती डर-डरकर जीती जनता अपने नेताओं से करुणा की आशा करती है। विरोधों और विषमताओं के बीच समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने की संज्ञा ही शिव है। शिव-परिवार में उनके पुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर शिव के कंठ में पड़े नाग का घोर शत्रु है। शिव पत्नी पार्वती का वाहन सिंह शिव के वाहन नंदी का विरोधी है, फिर भी शिव परिवार में सब साथ-साथ हैं, सुखी हैं और अपने-अपने कार्य में व्यस्त हैं। विरोधों में सामंजस्य की यही सामर्थ्य शिव-नेतृत्व के माध्यम से समाज में संघर्ष का शमन कर सकती है।

शिव सर्वप्रिय नेतृत्व के लिए आदर्श प्रतिमान

शिव अर्थात कल्याण के लिए शक्ति चाहिए, सामर्थ्य चाहिए। शक्ति दो प्रकार की है बुद्धि की और देह की, शास्त्र की और शस्त्र की। दोनों ही प्रकार की शक्तियां शिव की दो संतानों के रूप में उनकी वशवर्ती हैं। गणेश और कार्तिकेय के रूप, गुण और कार्य में इन शक्तियों की प्रतीकात्मकता के दर्शन होते हैं।

इस प्रकार शिव सर्वप्रिय नेतृत्व के लिए आदर्श प्रतिमान हैं। आज लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोक के नेतृत्व का सूत्रधार वही बन सकता है जो सर्वप्रिय हो, सर्वप्रिय न हो तो बहुप्रिय अवश्य हो। नेतृत्व की बहुप्रियता शिव की सर्वप्रियता के अनुकरण में ही संभव है। शिवरात्रि के इस पावन पर्व पर यदि हमारे नेता भगवान शिव के गुणों का अनुसरण करें तो वे भी सर्वप्रिय और जगतवंद्य बन कर सबका कल्याण कर सकते हैं।

( लेखक डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय नर्मदापुरम में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं )

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