इंदौर का ड्रेनेज घोटाला बना पहेली, वित्त विभाग की चिट्ठी तक के जवाब नहीं दे रहा इंदौर नगर निगम

इंदौर के ड्रेनेज घोटाले में करोड़ों का फर्जीवाड़ा सामने आया है। इसमें नगर निगम अधिकारियों की लापरवाही और भ्रष्टाचार शामिल हैं। जानिए पूरी कहानी और जांच की स्थिति के बारे में विस्तार से...

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Ramanand Tiwari
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इंदौर नगर निगम में करोड़ों के फर्जीवाड़े की कहानी व्यवस्था की सच्चाई पर करारा तमाचा है। तीन करोड़ से अधिक का ड्रेनेज घोटाला अब प्रशासन के लिए चिंता का विषय बन गया है। वहीं, वित्त विभाग ने साक्ष्य न उपलब्ध कराने पर खेद जताया है। एक तरह जहां एक साल से जांच फाइलें धूल फांक रही हैं। वहीं, दूसरी और इंदौर नगर निगम मामले से जुड़े जरूरी दस्तावेज भी नहीं दे पा रहा है। जिन अफसरों पर शक है, उनसे पूछताछ नहीं हो रही। एकाउंट डिपार्टमेंट के अधिकारियों को नोटिस भी नहीं भेजे गए। अब इस घोटाले की जांच फिर से शुरू की गई है।

वित्त विभाग ने लिखी तल्ख चिट्ठी

इंदौर घोटाला मामले में वित्त विभाग के सचिव आईएएस लोकेश कुमार जाटव ने नगर निगम आयुक्त दिलीप कुमार यादव को एक तीखा पत्र लिखकर गंभीर नाराजगी जताई है। इस पत्र में वित्त सचिव ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि 19 अगस्त 2024 को भेजे गए पत्र के बाद से ही आवश्यक दस्तावेज मांगे जा रहे हैं, परंतु आज तक प्रमाणित साक्ष्य नहीं मिले। इस लापरवाही को उन्होंने अत्यंत खेदजनक बताया है।

तत्काल कार्रवाई की मांग

आईएएस लोकेश कुमार जाटव ने अपने पत्र में मध्य प्रदेश सिविल सेवा नियम 1966 के नियम 14 का हवाला देते हुए कहा है कि प्रारूप आरोप-पत्र की प्रमाणित प्रतियां और अन्य आवश्यक अभिलेखीय साक्ष्य तुरंत उपलब्ध कराए जाने चाहिए।

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इधर निलंबित अधिकारी कर रहे बहाली की मांग

14 मई 2024 से निलंबित अधिकारी अब बहाली के लिए आवेदन दे रहे हैं, क्योंकि समय सीमा में आरोप-पत्र जारी नहीं हो पाया। यह स्थिति तब बनी है जब पुलिस एफआईआर में इन्हीं अधिकारियों को सह-अभियुक्त बनाया गया है।

क्या है इंदौर का ड्रेनेज घोटाला

इंदौर नगर निगम में सामने आए भ्रष्टाचार का मूल मामला फर्जी बिल और भुगतान घोटाले से जुड़ा है, जिसे इंदौर का ड्रेनेज घोटाला भी कहा जा रहा है।

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मूल भ्रष्टाचार क्या था?

फर्जी बिलिंग और पेमेंट स्कैम

इंदौर नगर निगम के ड्रेनेज कार्यो के नाम पर पांच फर्मो (नीव कंस्ट्रक्शन, ग्रीन कंस्ट्रक्शन, क्षितिज इंटरप्राइजेज, जहान्वी इंटरप्राइजेज और किंग कंस्ट्रक्शन) ने बिलों में फर्जीवाड़ा किया। इन फर्मो ने ऐसे बिल बनाए, जिनका कोई असली आधार और स्थल पर कार्य ही नहीं था। कई करोड़ के इन फर्जी बिलों को पास करवाया गया और सरकारी पैसे का भुगतान कर दिया गया। वित्त विभाग के मुताबिक, लगभग 3.20 करोड़ रुपए उन एजेंसियों को दिए गए, जिन्होंने न काम किया, न ही कोई प्रमाण पेश किया। इस घोटाले में 5 ठेकेदार और निगम कर्मचारियों के अलावा ऑडिट अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही की गई।

ऑडिट व लेखा शाखा की मिलीभगत

नगर निगम के लेखा विभाग और ऑडिट शाखा के कुछ अधिकारी ठेकेदारों के साथ मिले हुए थे, जिन्होंने जान-बूझकर इन बिलों को बिना सत्यापन के पास कर दिया। नतीजन इंदौर नगर निगम के खाते से फर्जी कंपनियों के खातों में बड़ी रकम चली गई।

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राजनीतिक और विभागीय रसूख

इतना बड़ा घोटाला आसानी से राजनीतिक व प्रशासनिक संरक्षण के बिना संभव नहीं हो सकता। कई रसूखदार अफसरों व अकाउंट शाखा के लोगों से न तो सीधी पूछताछ हुई और न ही उन पर जिम्मेदारी तय की गई। जब मामले की जांच शुरू हुई तो जिम्मेदार विभागों ने टाल-मटोल और कागजी खानापूर्ति शुरू कर दी।

दस्तावेज और साक्ष्यों की कमी भी

जांच में बार-बार जरूरी प्रमाण व दस्तावेज मांगने के बावजूद विभाग ने उन्हें उपलब्ध नहीं कराया। इससे कार्रवाई साल भर से अटकी रही। आरोपियों के निलंबन और बहाली के लिए आवेदन भी इसी वजह से लंबित हैं। यहां तक कि खरीद-फरोख्त के रिकॉर्ड, भुगतान के दस्तावेज – कुछ भी उपलब्ध नहीं कराया गया।

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सीधे-सीधे आर्थिक नुकसान

इस घोटाले के चलते निगम को करोड़ों का आर्थिक नुकसान हुआ। इतना ही नहीं, निगम की छवि और जनता का भरोसा भी प्रभावित हुआ। वित्त विभाग के मुताबिक, लगभग 3.20 करोड़ रुपए उन एजेंसियों को दिए गए, जिन्होंने न काम किया, न ही कोई प्रमाण पेश किया।

इंदौर नगर निगम घोटाले में अधिकारियों और विभाग की लापरवाही साफ दिखाई देती है। गजब ये है कि नगर निगम और नगरीय प्रशासन विभाग के अफसरों ने सिर्फ औपचारिकता निभाई- एक साल पहले सख्त पत्र तो लिखा, मगर असली दस्तावेज कभी नहीं दिए। नतीजा? पूरे साल तक जांच वहीं रुकी रही, और आरोपी अफसरों पर कोई वैध कार्रवाई नहीं हुई।

इसी टालमटोल के चलते, जो आरोपी निलंबित थे, उन पर मप्र सिविल सेवा नियम 1966 के तहत विभागीय जांच ही शुरू नहीं हो सकी। साल भर बीत गया, लेकिन जिम्मेदारों ने न तो प्रमाण दिए, न सही प्रक्रिया अपनाई। लोकल फंड ऑडिट के अफसरों ने भी एक साल पहले जरूरी पत्राचार किया, लेकिन उसका भी कोई असर नहीं पड़ा- वही ढाक के तीन पात! और ऊपर से, जब जिम्मेदार नेताओं और बड़े अफसरों से इस घोटाले पर जवाब माँगा गया, तो सबके मोबाइल या तो बंद मिले या उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।

मंत्री कैलाश विजयवर्गीय- फोन और व्हाट्सएप पर कोई जवाब नहीं मिला
विभाग के प्रमुख सचिव आईएएस संजय दुबे- कई बार कॉल और मैसेज के बाद भी चुप्पी
नगर निगम कमिश्नर आईएएस दिलीप कुमार यादव - तीन दिन तक लगातार कॉल, कोई जवाब नहीं

गंभीर चिंता का विषय

यह पूरा मामला दिखाता है कि फर्जी भुगतान के मामले में विभागीय जांच में देरी हो रही है, जिससे आरोपी अधिकारियों को फायदा मिल सकता है।

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