/sootr/media/media_files/2025/11/04/high-court-jodhpur-2025-11-04-14-23-30.jpg)
Photograph: (the sootr)
Jodhpur. पिता की बर्खास्तगी को रद्द करवाने और इंसाफ दिलाने के लिए बेटे-बेटी ने सालों तक कानूनी लड़ाई लड़ी। 15 साल पहले राजस्थान हाई कोर्ट की फुल बेंच ने जिला व सत्र न्यायाधीश बीडी सारस्वत को एनडीपीएस के एक मामले में बर्खास्त करने की सिफारिश कर दी। राज्यपाल से भी राहत नहीं मिली। बर्खास्तगी आदेश के दो साल बाद उनकी मौत हो गई। पिता पर लगे आरोपों से दोष मुक्त करवाने और इंसाफ दिलवाने के लिए सारस्वत के बेटे-बेटी ने हाईकोर्ट में कानूनी लड़ाई लड़ी।
एसआई भर्ती 2025 : राजस्थान हाई कोर्ट की लताड़, भर्ती परीक्षा मामलों में विश्वसनीयता खो चुकी सरकार
बर्खास्तगी के आदेश रद्द
15 साल बाद कोर्ट का इंसाफ आया है। हाई कोर्ट की जोधपुर खंडपीठ ने एक ऐतिहासिक फैसले में मृतक डिस्ट्रिक्ट जज सारस्वत की बर्खास्तगी के आदेश को रद्द कर दिया है। हाई कोर्ट ने बर्खास्तगी से सेवानिवृत्ति तिथि तक पूर्ण वेतन, सेवा निरंतरता, पेंशन व सभी लाभ परिवार को देने के आदेश दिए हैं।
जस्टिस मुन्नूरी लक्ष्मण और जस्टिस बिपिन गुप्ता की डिवीजन बेंच ने आदेश में कहा कि जांच रिपोर्ट विकृत साक्ष्यों पर आधारित थी। बेंच ने 15 साल पुरानी रिट याचिका पर फैसला दिया, जिसे हाई कोर्ट ने 8 अगस्त को सुरक्षित रखा था।
जज की मौत, बेटे-बेटी ने लड़ी लड़ाई
डिस्ट्रिक्ट जज सारस्वत प्रतापगढ़ में एनडीपीएस एक्ट के विशेष न्यायालय में स्पेशल जज थे। 2004-05 में एक एनडीपीएस मामले में आरोपी की तीसरी जमानत याचिका स्वीकार करने पर उन पर अवैध उद्देश्यों से जमानत देने का आरोप लगा।
जांच में दोषी ठहराए जाने पर 2010 में हाई कोर्ट की फुल बेंच की सिफारिश पर उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। 2012 में उनकी मृत्यु हो गई। इस पर सारस्वत की पत्नी और बेटे व बेटी ने हाई कोर्ट में इंसाफ की लड़ाई लड़ी और केस जीतकर पिता को इंसाफ दिलाया।
राजस्थान हाई कोर्ट : ससुर को हर महीने बहू देगी 20 हजार रुपए, सैलरी से कटकर बैंक खाते में जाएगी रकम
यह थी शिकायत
वकील अशोक कुमार ने शिकायत की थी कि जज सारस्वत ने आरोपी पारस की जमानत याचिकाओं को 6 अक्टूबर, 2004 और 2 दिसंबर, 2004 को खारिज कर दिया था। वकील कला आर्या ने तीसरी जमानत याचिका दायर की तो 24 फरवरी, 2005 को जमानत स्वीकार कर ली गई। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि यह जमानत अवैध उद्देश्यों से दी गई थी।
इस पर मुख्य न्यायाधीश ने 1 सितंबर, 2005 को जस्टिस एनपी गुप्ता से जांच करवाई। जांच अधिकारी ने शिकायत सही होने की रिपोर्ट दी। जिस पर फुल बेंच ने 2 फरवरी, 2010 को रिपोर्ट के आधार पर सारस्वत को बर्खास्त करने की सिफारिश की। राजस्थान सरकार ने 8 अप्रैल, 2010 को उनकी बर्खास्तगी का आदेश जारी कर दिया।
राज्यपाल ने भी नहीं दी राहत
इस बर्खास्तगी आदेश को सारस्वत ने राज्यपाल के यहां चुनौती दी, लेकिन उन्हें राहत नहीं मिली। इस पर हाई कोर्ट में याचिका लगाई। लेकिन 26 मई, 2012 को उनकी मृत्यु हो गई। उनकी पत्नी और बेटे अमित सारस्वत और मधु सारस्वत ने केस लड़ा। 15 साल बाद अब हाई कोर्ट ने परिवार के पक्ष में फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि मामले में साक्ष्यों को विकृत तरीके से पेश किया गया।
राजस्थान हाई कोर्ट ने दिए जयपुर के चारदीवारी क्षेत्र में 19 अवैध बिल्डिंगों को सीज करने के आदेश
सुनवाई का अवसर नहीं दिया
हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान वरिष्ठ एडवोकेट एमएस सिंघवी ने कहा कि याचिकाकर्ता ने 5 फरवरी, 2010 को जवाब दिया। फुल कोर्ट 2 फरवरी को बर्खास्तगी की सिफारिश कर चुका था। राज्यपाल ने इस जवाब पर विचार नहीं किया। सुनवाई का अवसर नहीं देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन था।
दूसरी तरफ राज्य सरकार की ओर से वरिष्ठ एडवोकेट राजेश पंवार और सीनियर एडवोकेट जीआर पूनिया ने कहा कि याचिकाकर्ता ने फुल कोर्ट के समक्ष अवसर का उपयोग नहीं किया। कोर्ट को रिपोर्ट स्वीकार करने के लिए विशेष कारण देने की आवश्यकता नहीं है। रिकॉर्ड पर पर्याप्त साक्ष्य हैं, जो याचिकाकर्ता का भेदभावपूर्ण आचरण दर्शाते हैं।
जमानत देना अवैध उद्देश्य से प्रेरित नहीं
हाई कोर्ट ने आदेश में कहा कि सीआरपीसी की धारा 167 (2) और सुप्रीम कोर्ट के राजीव चौधरी बनाम स्टेट दिल्ली मामले का हवाला देते हुए कहा कि 10 साल या उससे कम कारावास वाले अपराधों में हिरासत की अधिकतम अवधि 90 दिन है। जब तीसरी जमानत याचिका दायर की गई, तब तक आरोपी 157 दिनों से हिरासत में था और चार्जशीट दाखिल नहीं की गई थी।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पहली और दूसरी जमानत याचिका धारा 439 के तहत योग्यता के आधार पर नियमित जमानत मांगते हुए दायर की गई थी। तीसरी याचिका वैधानिक एवं डिफॉल्ट जमानत याचिका थी। अधिकारी के पास 90 दिन पूरे होने और चार्जशीट न दाखिल होने पर जमानत देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
राजस्थान हाई कोर्ट की फटकार : अधिकारी कोर्ट के आदेश को कितने समय तक दबाकर रख सकते हैं?
कई मामलों का हवाला
कोर्ट ने अभय जैन बनाम राजस्थान हाई कोर्ट के मामले का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि न्यायिक आदेशों के आधार पर अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करते समय हाई कोर्ट को अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए। जांच अधिकारी ने रमेश और अयूब से संबंधित जमानत आदेशों जैसे असंगत साक्ष्य पर भी विचार किया, जो आरोप का विषय नहीं थे।
कोर्ट ने कहा कि जांच अधिकारी के निष्कर्ष विकृत हैं। कोई भी विवेकशील व्यक्ति रिकॉर्ड पर साक्ष्य के आधार पर ऐसे निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकता। अधिकारी के पास वैधानिक जमानत देने के अलावा कोई विवेक नहीं था। वकील बदलने पर जमानत देना किसी अवैध उद्देश्य से प्रेरित नहीं माना जा सकता।
/sootr/media/agency_attachments/dJb27ZM6lvzNPboAXq48.png)
 Follow Us