मध्यप्रदेश के इन नेताओं का विधानसभा में पहुंचना मुश्किल; सर्वे में भी इनकी स्थिति ठीक नहीं, जानें कौन से हैं ये नेता

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Arvind Tiwari
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मध्यप्रदेश के इन नेताओं का विधानसभा में पहुंचना मुश्किल; सर्वे में भी इनकी स्थिति ठीक नहीं, जानें कौन से हैं ये नेता

BHOPAL. मालवा-निमाड़ में भाजपा के कई बड़े नेता इस बार परेशानी में हैं। ये वे नेता हैं जो सालों से चुनावी राजनीति में हैं और विपरीत परिस्थितियों में भी चुनाव जीते हैं। इनमें से कई इस बार चुनावी दौड़ से बाहर भी किए जा सकते हैं और कुछ का वापस विधानसभा में पहुंचना वर्तमान हालात में मुश्किल लग रहा है। अलग-अलग स्तर पर चल रहे सर्वे में भी इनकी स्थिति ठीक नहीं बताई गई है। पार्टी ने इन नेताओं के विधानसभा क्षेत्रों में नए चेहरों की तलाश शुरू कर दी है। 



पारस पहलवान यानी पारस जैन



1990 में उज्जैन उत्तर से पहली बार चुनाव जीते थे और 1998 को छोड़ लगातार यहां से विधायक रहे। शिवराज मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री और मंत्री भी रहे, पर 2018 का चुनाव जीतने के बाद इन्हें मंत्री नहीं बनाया गया। इस बार भाजपा ने उनके स्थान पर नए चेहरे की तलाश शुरू कर दी है। 60 प्लस को टिकट न देने की स्थिति में भी जैन का टिकट खतरे में पड़ सकता है। 



रंजना बघेल 



इनकी चुनावी राजनीति की शुरुआत भी 1990 के चुनाव से हुई थी, तब ये सरस्वती शिशु मंदिर की शिक्षिका से सीधे विधायक बनी थीं, वह भी जमुनादेवी जैसी कद्दावर नेता को हराकर। उसके बाद दो चुनाव हारी, पर 2003 से 2013 तक लगातार जीती। 2018 में मनावर में डॉ. हीरालाल अलावा से हार गई। इस बार भी मनावर गंधवानी या कुक्षी से टिकट की दौड़ में हैं, पर शायद मौका न मिले। पति मुकामसिंह किराड़े भी एक बार कुक्षी से उपचुनाव में जीतकर विधायक बने थे। 



अंतरसिंह आर्य



सेंधवा इनकी परंपरागत सीट है। 2018 में चुनाव हारने से पहले यहां से कई चुनाव जीते और मंत्री भी रहे। सक्रिय तो अभी भी हैं, लेकिन जिस अंदाज में पार्टी यहां नए नेतृत्व को तलाश रही है उससे ऐसा लगता है कि इस बार इन्हें चुनावी दौड़ से बाहर रखा जा सकता है। इनके क्षेत्र में जयस का भी बहुत प्रभाव है। बढ़ती उम्र भी इनकी उम्मीदवारी के मामले में बड़ा रोड़ा है। 



प्रेमसिंह पटेल



बड़वानी सीट से 2003 से (2013 को छोड़कर) लगातार चुनाव जीत रहे हैं। 2018 में जीत के बाद पहली बार मंत्री बने हैं। इस बार उम्मीदवारी खटाई में पड़ सकती है। बढ़ती उम्र और खराब स्वास्थ्य उम्मीदवारी की दौड़ से बाहर करने का बड़ा कारण रहेगा। मंत्री बनने के बाद क्षेत्र पर कम ध्यान दे पाए और कार्यकर्ताओं के बीच भी विरोध बढ़ा है। 



महेंद्र हार्डिया



इंदौर पांच से लगातार चार चुनाव जीते,  मंत्री भी रहे। इस बार इनकी उम्मीदवारी को लेकर भी असमंजस की स्थिति है। यहां पार्टी किसी नए चेहरे को मैदान में उतारना चाहती है और ऐसी स्थिति में हार्डिया का टिकट कट सकता है। वैसे पार्टी का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि यहां किसी भी तरह के विवाद को टालने के लिए फिर से हार्डिया को ही मौका देना चाहिए। खुद हार्डिया भी सारे समीकरण अपने पक्ष में करने में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं। 



उषा ठाकुर



2003 से 2018 तक तीन अलग-अलग क्षेत्रों से विधायक बनी। 2008 में उम्मीदवारी से वंचित रखी गई थी। इस बार स्थिति डांवाडोल है। या तो महू के बजाय किसी और क्षेत्र से मौका दिया जाएगा या फिर टिकट कट भी सकता है। महू में पार्टी नेताओं के बीच इन्हें लेकर विरोधाभास है और एक बड़ा वर्ग इनके खिलाफ है। यहां बड़ी संख्या आदिवासी मतदाताओं की है जो फिलहाल सरकार से नाराज हैं। 



यशपालसिंह सिसौदिया



तीसरी बार के विधायक 2008 में पहली बार चुनाव जीते थे। सदन और क्षेत्र दोनों में बेहद सक्रिय और मुख्यमंत्री के विश्वासपात्र भी हैं, लेकिन स्थानीय स्तर पर पार्टी का एक बड़ा वर्ग इनसे संतुष्ट नहीं है। 15 साल के विधायक कार्यकाल से उपजा असंतोष इस बार परेशानी का कारण बन रहा है। कुछ स्थानीय नेता भी इनके खिलाफ मोर्चा खोलकर बैठे हैं।



दिलीपसिंह परिहार



ये भी नीमच से तीन चुनाव लड़ चुके हैं और तीनों बार जीते। इस बार इन्हे संभवत: मौका न मिले। पार्टी दूसरी संभावना भी तलाश रही है, लेकिन इन्हें एकदम भी अनदेखा करने की स्थिति नहीं है।


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