मध्यप्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य काफी अनिश्चय भरा हो चला है। यह तब है, जब विधानसभा चुनाव को केवल छह माह बचे हैं। एक दौर था, जब साल भर पहले से पता चल जाता था कि चुनाव परिणाम किसके पक्ष में जाने के प्रबल आसार हैं। अब तो समूचे परिणाम घोषित हो जाने तक धुकधुकी बनी रहती है। ये हाल तब हैं, जब प्रदेश के दोनों प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की ओर से मतदाताओं को खैरात की बंदरबांट चालू है। सब ने खजाने तो ऐसे खोल रखे हैं, जैसे ये प्रदेश और इसका खजाना उनकी जागीर हो या खुल जा सिम-सिम के अंदाज में कहीं से अकूत दौलत उनके हाथ लग गई हो। जिसके गाढ़े खून-पसीने की कमाई से चुकाये जाने वाले कर से यह खजाना भरता है, वह वर्ग तो मन मसोस कर खामोश बैठा है। लोकतंत्र की कितनी अजीब विडंबना है कि करदाता विवश है और खैरात पर जीवन यापन करने वाले ऐसे निश्चिंत हैं, जैसे बेटी की विदाई के बाद उसके माता-पिता हो जाते हैं।
चुनाव निजी प्रतिष्ठा का विषय हो गये
दरअसल, मप्र के विधानसभा चुनाव मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ के लिये निजी प्रतिष्ठा का विषय हो गये हैं। नवंबर 2018 के चुनाव में अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस ने भाजपा की सत्ता 13 वर्ष की निरंतरता के बाद उखाड़ फेंकी थी। इसके सेनापति थे कमलनाथ। उन्होंने केंद्र की राजनीति छोड़कर मप्र की राजनीति में प्रवेश किया था। कहने को वे छिंदवाड़ा के सासंद रहे, लेकिन अर्जुनसिंह और दिग्विजय सिंह को प्रदेश की बागडोर देकर वे केंद्र की राजनीति के केंद्र में बने रहे। वहां उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण मंत्रालयों का कार्यभार सफलतापूर्वक संभाला। जिससे उनकी पहचान और प्रतिष्ठा राष्ट्रीय स्तर पर बनी।
सकारात्मक संबंध बनाये रहे
सद्भाव और सौजन्य की राजनीति करने वाले कमलनाथ विपक्षी दलों के नेताओं से भी सकारात्मक संबंध बनाये रहे। बताते हैं कि भूतल परिवहन मंत्रालय के प्रभार के दौरान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे ज्यादा कमलनाथ से अपने प्रदेश के लिये योजनायें मंजूर कराते रहे । इसीलिये गौर कीजिये कि बीते नौ बरस में न मोदीजी कभी कमलनाथ के लिये, न ही कमलनाथ कभी मोदीजी के प्रति असहिष्णु या अमर्यादित हुए। शायद इसीलिये आज भी जब कभी कमलनाथ मोदीजी से मिलते हैं तो एक पैर दूसरे पैर के ऊपर रखकर ही बैठते हैं। वैसे यह उनका तरीका तो है ही, साथ ही वे मोदीजी के लिये सहज भी हैं। बहरहाल।
प्रदेश की राजनीति में फिर भी शिवराज और कमलनाथ में स्वाभाविक रूप से तलवारें तनी रहती हैं। शिवराज सिंह चौहान अपनी 2018 की हार को भुला नहीं पा रहे थे, क्योंकि वे यह मानकर चल रहे थे कि कम-ज्यादा सही, लेकिन सरकार तो उनकी ही बनेगी। महज छह सीटों के फासले से कांग्रेस की सरकार बन जाने से शिवराज सिंह खिन्न थे ही। ऐसे में जब ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत से भाजपा को फिर से सरकार बनाने का मौका मिला तो भाजपा आलाकमान ने शिवराज को ही कमान थमाई। कमलनाथ के मन में भी वह घटना टीस बनकर चुभती रहती है। वह उस फांस को निकाल फेंकने के लिये कटिबद्ध नजर आ रहे हैं। स्वास्थ्य कारणों के बावजूद वे घाट-घाट जा रहे हैं, गली-गली घूम रहे हैं, शहर-शहर नाप रहे हैं। वे एक बार फिर से मप्र के मुख्यमंत्री पद पर आसीन होना चाहते हैं।
तो 2028 के विधानतभा चुनाव के सेनापति वे तो कतई नहीं हो पायेंगे
कमलनाथ यह बात भी अच्छी तरह जानते हैं कि यदि इस बार सफल नहीं हो पाये तो 2028 के विधानतभा चुनाव के सेनापति वे तो कतई नहीं हो पायेंगे। इसलिये साम-दाम से वे भी पीछे हटने वाले नही हैं। कमलनाथ का सकारात्मक पक्ष यह है कि वे कांग्रेस के भी कमोबेश सारे गुटों में अपेक्षाकृत स्वीकार्य हैं। आलाकमान में सोनिया, राहुल, प्रियंका, खड़गे के मन में भी उनके लिये आदर हैं, क्योंकि वे इंदिराजी और राजीव गांधी के साथ काम कर चुके हैं और दोनों के ही प्रिय रहे हैं। कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति के पहली, दूसरी पंक्ति के नेता भी उन्हें पर्याप्त सम्मान देते हैं। ऐसे माहौल में कमलनाथ को ऐसी कोई चुनौती नहीं है कि यदि कांग्रेस मप्र में बहुमत हासिल करती है तो शपथ ग्रहण के लिये कोई दूसरा नाम आगे बढ़ सकता है।
इस तरह से शिवराज सिंह अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिये तो कमलनाथ खोया राज सिंहासन वापस पाने के लिये पूरा जोर लगाये हुए हैं। दोनों के बीच शह-मात का खेल प्रारंभ हो चुका है। नित-नये पांसे फेंके जा रहे हैं। शिवराज सिंह ने जहां सरकारी खजाने का मुंह खोल दिया है तो कमलनाथ ने संभावित सरकारी खजाने की पहरेदारी मिलने की चाहत में वादे परोसने पर ध्यान लगा रखा है। मतदान तक ये प्रलोभन, वादे, दिलासे जारी रहेंगे। जो मतदाता के भरोसे पर खरा लगेगा, जनता उसे राज तिलक कर देगी।