साल 1980 में अपने गठन के बाद भारतीय जनता पार्टी पूरे देश में, गली कूंचों, खेत-खलिहानों तक कैसे फैली.. यह किसी तिलस्म से कम नहीं रहा। आज इस तिलस्म के बाजीगर लालकृष्ण आडवाणी का 95वां जन्मदिन है। चलिए उन्हें याद करते हैं भाजपा के विंध्य से जुड़े संदर्भों के साथ।
एक समय था जब कार्यकर्ता ढूंढे नहीं मिलते थे भाजपा को
अब भले ही विन्ध्य कांग्रेसमुक्त होकर भाजपामय हो, विभिन्न विचारों की राष्ट्रीय राजनीतिक प्रयोगशाला रहे रीवा की सभी सीटों पर चुनावी हवा के विपरीत कमल खिलें हों। और जिस विंध्य के दम पर ही वह अल्पविराम के बाद सत्ता में वापस आ पाई हो। पर एक समय ऐसा भी था जब भाजपा के दिग्गज से दिग्गज नेता यहां आते और बंद कमरे में सिर्फ संगोष्ठी करके लौट जाते थे। वजह कांग्रेस और समाजवादियों के दो ध्रुवों के बीच भाजपा की न कोई हैसियत थी न ही बिसात। दरी की कौन कहे मंच पर बैठने के लिए कार्यकर्ता ढूंढे नहीं मिलते थे, रोजंदारी में भी नहीं।
पार्टी के विस्तार की शुरुआत ऐसे हुई
बात 1985 की है। कुशाभाऊ ठाकरे की पहल पर स्थानीय दिग्गज और खांटी लोहियावादी कौशल प्रसाद मिश्र भाजपा से जुड़े। मिश्र के साथ ही विंध्यभर में समाजवादियों, खासकर युवाओं के भाजपा में शामिल होने का सिलसिला चल निकला।
जल्दी ही मिश्र को पार्टी का जिलाध्यक्ष बना दिया गया। मिश्र से संबंधों की वजह से भाजपा के एक से एक दिग्गज जैसे- अटलबिहारी वाजपेयी, राजमाता सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी, शेर-ए-कर्नाटक जगन्नाथ राव जोशी जैसों का रीवा आना शुरू हुआ।
मुझे याद है कि जगन्नाथ राव जोशी की सभा वेंकट भवन रीवा के प्रांगण में हुई थी। जगन्नाथ राव जोशी, अटलजी के बाद उस समय सबसे प्रभावी वक्ता और नेता थे, वे मध्यप्रदेश से लोकसभा सदस्य भी रह चुके थे। उनकी सभा में बमुश्किल सैकड़ा भर लोग जुटे, महिला कार्यकर्ता तो एक भी नहीं थीं।
एक साल बाद मिला आडवाणी का सानिध्य
इसी क्रम में 1986 में यहां लालकृष्ण आडवाणी आए। कौशल मिश्र का मुझ पर पुत्रवत स्नेह था..लिहाजा उन्होंने आडवाणी जी के साथ रहने का निर्देश दिया। उन दिनों मैं देशबन्धु पत्र समूह में था और बड़े नेताओं तक पहुंचने का इससे अच्छा और सम्मानजनक अवसर और क्या हो सकता था! मैं पूरे समय आडवाणी के साथ था और इस बीच समाज, राजनीति, देश-दुनिया की ढेर सारी बातें की।
जब मैंने सवाल किया तो पत्रकार कहकर वापस बिठा दिया
आडवाणी की सभा की बजाय (भीड़ न जुट पाने की आशंका से) कार्यकर्ता संगोष्ठी रखी गई। यहां के वेंकट भवन के हॉल में। बमुश्किल 200 कार्यकर्ता रहे होंगे। आडवाणी का एक घंटे का भाषण हुआ। बाद में उन्होंने कार्यकर्ताओं के सवालों के लिए समय दिया। पर सन्नाटा किसी कार्यकर्ता ने कुछ पूछने का साहस ही नहीं किया।
मैं कार्यकर्ताओं के बीच बैठा था, इस गरज से खड़ा हुआ कि आडवाणी कहीं इस भ्रम में न रह जाएं कि यहां के सभी कार्यकर्ता धुर्र हैं। मैंने एक करारा सवाल किया। शायद सवाल यह था कि हम बनिया छाप पार्टी की पहचान से कब तक मुक्त हो जाएंगे..? मुस्कुराते हुए आडवाणी ने कहा कि पार्टी मीटिंग में कार्यकर्ताओं के बीच बैठे पत्रकार, मैं आपके सवालों का जवाब अलग से दूंगा, अभी कार्यकर्ताओं को पूछने दो।
बीजेपी को बनियाछाप पार्टी के संबोधन से मुक्ति दिलाई
बिना बताए ही आडवाणी ताड़ गए थे कि मैं पत्रकार हूं, जबकि मिश्रा ने मुझे घर के लड़के के तौर पर परिचय कराया था। मेरे सवाल का जवाब देश को तब मिल गया, जब आड़वाणी सोमनाथ से रथयात्रा लेकर चले.. राम मंदिर निर्माण का जो भावावेग उमड़ा उसमें बनिया भर ही नहीं, सकल हिंदू समाज ही बह चला। भाजपा बनिया छाप पार्टी विशेषण से मुक्त हो गई और निःसंदेह मुक्ति दिलाने वाले कोई और नहीं आडवाणी थे।
2009 के चुनाव में बहुमत नहीं मिलने के बाद हाशिए पर चले गए
आडवाणी जब गृहमंत्री बने तो लोग उनमें 'आयरन मैन' की छवि देखने लगे। आडवाणी को 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री के रूप में पेश किए गए। अडवाणी ने चुनाव अभियान भी दमदारी से चलाया। भाजपा(राजग) बहुमत से दूर रही और आडवाणी जी की किस्मत यहीं से रूठना शुरू हुई। यह उनके जीवन का सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट था। 2013 आते-आते वे मुखपृष्ठ से हाशिये में खिसकते गए। रही सही कसर "जिन्ना की मजार" प्रकरण ने पूरी कर दी।
आडवाणी बीजेपी के वास्तविक युगपुरुष
आडवाणी राम मंदिर निर्माण आंदोलन के हीरो थे। आज राम मंदिर के रूप में देश के सम्मान की प्राणप्रतिष्ठा हो रही है और यह हीरो वानप्रस्थ काल में है।
आडवाणी वास्तव में भाजपा के युगपुरुष हैं। एक सूक्ष्म बीज को रोपकर बरगद के विशाल वृक्ष तक पहुंचाने वाले बागवान हैं। आज उनका जन्मदिन है, उन्हें कोटिशः प्रणाम। ईश्वर उन्हें सहस्त्रायु बनाए, स्वस्थ और सकुशल रखे।