अतुल तिवारी, हर आदमी अपनी जिंदगी में कुछ करने के लिए धरती पर आता है। किसी का छोटा, किसी का बड़ा, पर सबका एक मकसद होता है। कुछ को ही अपने मकसद का पता होता है, बाकी सब अपने काम में लीन रहते हैं। जिन्हें मकसद पता होता है और जो इसे पा लेते हैं, वो ही ग्रेट्स कहलाते हैं। इसी महीने आदि शंकराचार्य की 1234वीं जयंती मनाई गई। वो शंकराचार्य जो सिर्फ 32 साल जिए, लेकिन वो काम कर गए जो सामान्य सोच से भी बाहर है। आज उन्हीं शंकराचार्य की कहानी सुना रहा हूं। कहानी का नाम है- ब्रह्मचारी थे लेकिन काम सीखा और जगद्गुरु कहलाए
ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या का उद्घोष
शंकराचार्य का जन्म 788 में केरल के कालड़ी में हुआ था। उन्होंने 16 से 32 वर्ष की उम्र तक देश भर में यात्रा की और इस दौरान उन्होंने वेदों के संदेश का प्रचार-प्रसार किया। सिर्फ 32 साल में ही शंकराचार्य दिव्य ज्योति में विलीन हो गए, लेकिन उनकी शिक्षाएं आज भी नई पीढ़ी को प्रेरित करती हैं।
शंकर के दर्शन को अद्वैत वेदांत दर्शन कहा जाता है। इसका सार ये है- ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या यानी ब्रह्म (ये ब्रह्म ईश्वर नहीं है) ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है। ब्रह्म ही रहेगा, बाकी सब मिट जाने वाला है। इस दर्शन को समझ पाना इतना आसान नहीं है। सुनने में आसान लगता है, पर है बेहद मुश्किल। कई धर्मगुरु आए, कई मत आए, शुद्धाद्वैतवाद, द्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत, पर शंकर के अद्वैत की काट किसी के पास नहीं है। अद्वैत का मतलब होता है, दो नहीं एक। ब्रह्म एक ही है।
शंकर कहते हैं- बंधन से मुक्त होने के लिए बुद्धिमान व्यक्ति को अपने और अहंकार के बीच भेदभाव का अभ्यास करना चाहिए। केवल उसी से एक व्यक्ति स्वयं को शुद्ध सत्ता, चेतना और आनंद मिल सकता है। धन, लोग, रिश्तों और दोस्तों या अपनी जवानी पर गर्व ना करें। ये सब चीजें पल भर में छिन जाती हैं। इस मायावी संसार को त्याग कर परमात्मा को जानो और प्राप्त करो। लेकिन ये सब कर पाना इतना आसान नहीं है। फिर एक दर्शन ये भी आया था- ब्रह्म सत्यं, जगत सत्यं। क्योंकि हम जिस दुनिया में रहते हैं, तमाम चीजें करते हैं, वे भले ही मिथ्या हों, पर हमारे जीने तक तो वे सच ही रहती हैं।
मंडन को हराया
शंकर की ख्याति पूरे देश में फैल चुकी थी। उस वक्त ऐसा कोई ज्ञानी नहीं था, जो शंकराचार्य से धर्म और दर्शन पर शास्त्रार्थ कर सके। शंकराचार्य शास्त्रार्थ करते हुए मंडन मिश्र के घर पहुंचे। मंडन, एक प्रकांड विद्वान कुमारिल भट्ट के शिष्य थे। मंडन मिश्र गृहस्थ आश्रम में रहने वाले विद्वान थे। उनकी पत्नी भी विदुषी थीं। इस दंपती के घर पहुंचकर शंकराचार्य ने मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने शर्त रखी कि जो हारेगा, वह जीतने वाले का शिष्य बन जाएगा। अब सवाल खड़ा हुआ कि दो विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ में हार-जीत का फैसला कौन करेगा। शंकराचार्य को पता था कि मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती विदुषी हैं। उन्होंने उन्हें ही निर्णायक की भूमिका निभाने को कहा।
शंकराचार्य के कहे अनुसार भारती दोनों के बीच होने वाले शास्त्रार्थ का निर्णायक बन गईं। मंडन और शंकराचार्य के बीच कई दिनों तक शास्त्रार्थ होता रहा। कुछ लोग कहते हैं कि 21 दिन तो कहीं मिलता है कि शंकर ने 42 दिन में मंडन को शास्त्रार्थ में हराया। आखिर में शंकराचार्य के एक सवाल का जवाब नहीं दे पाए और उन्हें हारना पड़ा। निर्णायक की हैसियत से भारती ने कहा कि उनके पति हार गए हैं। वे शंकराचार्य के शिष्य बन जाएं और संन्यास की दीक्षा लें। लेकिन भारती ने शंकराचार्य से यह भी कहा कि मैं उनकी पत्नी हूं। मैं उनकी अर्धांगिनी हूं, लिहाजा मिश्रजी की आधी ही हार हुई है। मेरी हार के साथ ही उनकी पूरी हार होगी। इतना कहते हुए भारती ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। मंडन कुमारिल भट्ट के शिष्य थे।
शंकराचार्य और भारती के बीच भी कई दिनों तक शास्त्रार्थ होता रहा। एक महिला होने के बावजूद उन्होंने शंकराचार्य के हर सवाल का जवाब दिया। वे ज्ञान के मामले में शंकराचार्य से बिल्कुल कम न थीं, लेकिन 21वें दिन भारती को यह लगने लगा कि अब वे शंकराचार्य से हार जाएंगी। तो भारती ने एक ऐसा सवाल कर दिया, जिसका व्यावहारिक ज्ञान के बिना दिया गया शंकराचार्य का जवाब अधूरा समझा जाता।
मंडन की पत्नी के सवालों में उलझे
भारती ने शंकराचार्य पूछा- काम क्या है? इसकी प्रक्रिया क्या है और इससे संतान की उत्पत्ति कैसे होती है? आदि शंकराचार्य तुरंत सवाल की गहराई समझ गए। यदि वे उस वक्त इसका जवाब देने की स्थिति में नहीं थे, क्योंकि वे ब्रह्मचारी थे और जीवन का उन्हें कोई अनुभव नहीं था। पढ़ी-सुनी बातों के आधार पर जवाब देते तो उसे माना नहीं जा सकता था। ऐसी स्थिति में उन्होंने उस वक्त हार मान ली, पर भारती से जवाब के लिए छह माह का समय मांगा।
शंकराचार्य इस हार के बाद वहां से चले गए। कहा जाता है कि इस सवाल का जवाब जानने के लिए शंकराचार्य ने योग के जरिए शरीर त्याग कर एक मृत राजा की देह को धारण किया। राजा के शरीर में प्रविष्ट होकर उसकी पत्नी के साथ उन्होंने भारती के सवाल का जवाब ढूंढा। इसके बाद उन्होंने फिर भारती से शास्त्रार्थ कर उनके सवाल का जवाब दिया और उन्हें पराजित किया।
ऐसे सीखी काम क्रिया
दावा है कि शंकराचार्य ने महेश्वर के पश्चिम दिशा स्थित एक गुफा में अपना शरीर छोड़ा और शिष्यों को वहां रुकने के लिए कहा। सूक्ष्म रूप धारण कर वे आकाश में भ्रमण करने लगे। इस दौरान उन्होंने राजा अमरूक के मृत शरीर को देखा, जिसके आसपास 100 से अधिक सुंदरियां राजा के पास रो रही थीं।
तब शंकराचार्य ने सूक्ष्म रूप के साथ राजा के शरीर में प्रवेश किया। राजा को जीवित देख रानियां व मंत्री प्रसन्न् हो गए। राजा ने पुन: काम संभाला और इसी दौरान काम शास्त्र से संबंधित तथ्यों को जाना और पुन: राजा अमरूक के शरीर को छोड़कर गुफा में पहुंचे और अपने मूल शरीर में प्रवेश कर मंडन मिश्र के घर पहुंचे। वहां उभय भारती व शंकराचार्य के बीच पुन: शास्त्रार्थ हुआ। इसमें शंकराचार्य ने उभय भारती को पराजित किया।
नर्मदाष्टक की रचना की
नर्मदाष्टक (सविंदुसिंधु सुस्खलतरंगभंजितं...त्वदीयपाद पंकजम नमामि देवि नर्मदे) की रचना आदि शंकराचार्य ने ओंकारेश्वर में की थी। कहा जाता है कि तब एक बार नर्मदा में भीषण बाढ़ आई थी, नर्मदा स्तुति के बाद उन्होंने बाढ़ को अपने कमंडल में ले लिया। एक किस्सा ये भी है कि शंकर ने जब नर्मदा स्तुति की तो नर्मदा की बाढ़ उतरने लगी। उस समय नर्मदा शंकराचार्य के गुरु की कुटिया तक पहुंच गई थी, गुरु तपस्या में लीन थे। शंकर को डर लगा कि उनके गुरु का क्या होगा, इसलिए उन्होंने स्तुति की।
दोस्तो, आदि शंकराचार्य यानी जिसके तर्कों का कोई सानी ना हो। आदि शंकराचार्य यानी जो 32 साल में पूरा भारत घूम ले। आदि शंकराचार्य यानी जो भारत के चार कोनों केदार, पुरी, द्वारका और रामेश्वरम में चार मठ बना दे और धर्म की पुनर्स्थापना कर दे। आदि शंकराचार्य यानी विरले किस्म का विद्वान। आदि शंकराचार्य यानी जो निर्लिप्त रहकर काम क्रीड़ा सीखे, केवल सीखे, करे कुछ नहीं। कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जिन्हें आप विशेषण में नहीं बांध सकते। जो अपने आप में ही विशेषण होते हैं। आदि शंकराचार्य इसी श्रेणी में आते हैं।