हमारे देश में जब 1857 का स्वातंत्र्य युध्द समाप्त होने को था, तब अमरीका का दृश्य बड़ा भयानक था। अमरीका में 1861 से 1865 तक गृहयुध्द चल रहा था। अमरीका के 34 प्रान्तों में से दक्षिण के 11 प्रान्तों ने गुलामी प्रथा के समर्थन में, बाकी बचे (उत्तर के) प्रान्तों की यूनियन ने विरोध में युध्द छेड़ दिया था। उनका कहना था कि हम अपने विचारों के आधार पर देश चलाएंगे। इसलिए हमें अलग देश, अलग राष्ट्र चाहिए..!
अमरीका का सौभाग्य, उसे लिंकन जैसा राष्ट्रपति मिला
वो तो भला था अमरीका का, जिसे उस समय अब्राहम लिंकन जैसा राष्ट्रपति मिला। लिंकन ने अमरीका के बंटवारे का पूरी ताकत से विरोध किया। गृहयुध्द हुआ, लेकिन बंटवारे को टाल भी दिया..! और आज..? आज अमरीका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक (टैक्टिकल) ताकत है। यदि 1861 में अमरीका का बंटवारा स्वीकार होता, तो क्या आज अमरीका वैश्विक ताकत बनता..?
उत्तर है- नहीं।
भारत को भी लिंकन जैसा नेतृत्व करने वाले की जरूरत थी
यह तो हमारा दुर्भाग्य था कि उस समय हमारे देश का नेतृत्व ऐसे हाथों में था, जिन्होंने डरकर, घबराकर, संकोचवश, अतिसहिष्णुता के कारण देश का बंटवारा मंजूर कर लिया..! यदि अब्राहम लिंकन जैसा नेतृत्व उस समय हमें मिलता तो शायद हमारा इतिहास, भूगोल और वर्तमान कही अधिक समृध्द होता..! तत्कालीन नेतृत्व की बड़ी भूल थी कि वे मुस्लिम लीग के विरोध में खुलकर कभी खड़े ही नहीं हुए। हमेशा मुस्लिम लीग को पुचकारते रहे। गांधी और कांग्रेस के कुछ नेताओं को लग रहा था कि अगर हम मुस्लिम लीग की मांगें मांगेंगे तो शायद उनका हृदय परिवर्तन होगा। लेकिन यह होना नहीं था, और हुआ भी नहीं..!
जिसने सारे जहां से अच्छा लिखा, उसने विभाजन का बीज भी बोया
मुस्लिम लीग के अलाहाबाद अधिवेशन 1930 में, अध्यक्ष पद से बोलते हुए कवि इकबाल (वही, जिसने सारे जहां से अच्छा.. गीत लिखा था) ने कहा कि मुसलमानों को अलग भूमि मिलना ही चाहिए। हिन्दूओं के नेतृत्व वाली सरकार में मुसलमानों को अपने धर्म का पालन करना संभव ही नहीं है..! अलग भूमि, अलग राष्ट्र का सपना हिन्दुस्तान के मुसलमानों को दिखने लगा था। साथ ही लंदन में बैठे रहमत अली ने इकबाल के भाषण का आधार लेकर अलग मुस्लिम राष्ट्र के लिए एक पुस्तक ही लिख दी। इस किताब में रहमत ने उस मुस्लिम राष्ट्र को पाकिस्तान नाम दिया।
दुर्भाग्य से गांधी जी मुस्लिम लीग की उग्रता को नहीं समझ सके
दुर्भाग्य से महात्मा गांधी और बाकी का कांग्रेस नेतृत्व इस उग्रता को नहीं समझ सका। वहीं मुस्लिम लीग दंगे कराने का डर दिखाती थी और दंगे कराती भी थी। इन दंगों में कांग्रेस की भूमिका निष्क्रिय रहने की होती थी, कारण गांधी ने अहिंसा का व्रत लिया था। इस दौरान गांधी ने कहा कि मुझे स्वतंत्रता या अखंडता की तुलना में अहिंसा अधिक प्रिय है। यदि हिंसा से स्वतंत्रता या अखंडता मिलती है, तो वह मुझे नहीं चाहिए ! वहीं दूसरी ओर अब्राहम लिंकन था जिसने दूरदर्शिता दिखाते हुए, हिंसा या गृहयुध्द की कीमत पर अमरीका को एक रखा और विश्व का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनाया।
और हमारे यहां ?
हिंसा के भय से, प्रतिकार करने के डर से, हमारे नेतृत्व ने विभाजन स्वीकार कर लिया !
मुस्लिम लीग की धमकी से डर गया कांग्रेस नेतृत्व
आगे चलकर मुस्लिम लीग ने डायरेक्ट एक्शन की धमकी दी और कहा कि पाकिस्तान को मंजूरी दो, नहीं तो 16 अगस्त 1946 को हम ‘डायरेक्ट एक्शन’ लेंगे। उस समय अविभाजित बंगाल का मुख्यमंत्री हसन सुह्रावर्दी था। सुह्रावर्दी ने 16 अगस्त से 19 अगस्त 1946 के बीच करीब 5 हजार हिन्दुओं का कत्ले-आम किया। 20 हजार से ज्यादा हिन्दू गंभीर रूप से जख्मी हुए। कितनी मां और बहनों की इज्जत लूटी गई, इसकी कोई गिनती नहीं है ! इस ‘डायरेक्ट एक्शन’ से कांग्रेस के नेता डर गए। यही उनकी सबसे बड़ी भूल थी। प्रतिकार भी किया जा सकता था। दुनिया के सामने मुस्लिम लीग की इस बर्बरता को, इस क्रूरता को रखा जा सकता था। हम लोगों में प्रतिकार करने की शक्ति थी।
अखंड भारत के लोग पराक्रमी थे, फिर भी विभाजन मंजूर कर लिया
अखंड भारत के पश्चिम प्रान्त में बड़ी संख्या में हिन्दू थे। ईरान से सटा हुआ बलोचिस्तान था। इस बलोचिस्तान में और बगल के सिस्तान प्रान्त में बहुत बड़ी संख्या में हमारे सिंधी भाई भी रहते थे। क्वेटा, डेरा बुगती, पंजगुर, कोहलू, लोरालई, यहां से तो कराची, हैदराबाद (सिंध) तक। इन सभी स्थानों पर हमारे सिंधी और पंजाबी भाई हजारों सालों से रहते आये थे। पश्चिम से आने वाले हर एक आक्रमणकर्ता की नजर सबसे पहले इन पर ही पड़ती थी। ये राजा दाहिर के वंशज थे, अफगान जीतने वाले महाराजा रंजीत सिंह के बंदे, शूरवीर, पराक्रमी थे, इतने आक्रमणों के बाद भी इन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा और ना ही छोड़ी थी, अपनी जमीन !
दुर्भाग्य कि हजारों लोग अपने ही देश में शरणार्थी बन गए
लेकिन दुर्भाग्य इस देश का कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी के विभाजन स्वीकार करने वाले निर्णय ने इन पुरुषार्थ के प्रतीकों को, बेबाक साहसी वीरों को और प्रतिकूल परिस्थिति में भी टिके रहने की क्षमता रखने वाले इन योध्दाओं को, हजारों सालों की अपनी पुश्तैनी जमीन छोड़नी पड़ी। अपना घरबार, गली- मोहल्ला और जन्म भर की सारी पूंजी छोड़कर, सब एक रात में शरणार्थी बन गए, वो भी अपने ही देश में !