कंजरवेटर ग्वालियर के ऑफिस में कार्यरत कार्यालय अधीक्षक पंडित सीताराम शर्मा ग्वालियर स्टेट के कर्मचारी थे। वे अक्सर ग्वालियर स्टेट के रोचक किस्से सुनाते रहते। उनके बताए अनुसार स्टेट टाइम में महल यानी कि जय विलास पैलेस से अगर किसी अधिकारी या कर्मचारी का बुलावा आ जाता तो उसकी रूह कांप जाती, नींद उड़ जाती वो व्यक्ति तनाव में आ जाता। यदि उस अधिकारी या कर्मचारी ने तनिक भी भ्रष्टाचार किया हुआ होता तो महल में उसकी शिकायत होने पर संबंधित अधिकारी या कर्मचारी को बुलाकर उसकी कोड़ों या बैतों से जमकर धुनाई की जाती। इसलिए जब भी किसी अधिकारी या कर्मचारी का महल से बुलावा आता तो वे डरकर घबरा जाते। पंडित सीताराम शर्मा एक अच्छे कथावाचक भी थे। जब भी कोई परिचित या उनका अधीनस्थ कर्मचारी सत्यनारायण की कथा या पूजन के लिए उनको आमंत्रित करता तो वे उसके घर अवश्य पहुंच जाते।
ग्वालियर महाराज की सोन चिरैया को लेकर चिंता
फॉरेस्ट महकमे के सीनियर अधिकारी ओपी भार्गव रिटायरमेंट के बाद ग्वालियर महाराजा के प्राइवेट सेक्रेटरी के रूप में कार्यरत थे। उनसे परिचय होने के कारण मेरा जय विलास पैलेस में अक्सर जाना होता रहता। तत्कालीन महाराजा श्रीमंत माधवराव सिंधिया ग्वालियर क्षेत्र के विकास के लिए हमेशा प्रयासरत रहते। इसी सिलसिले में एक बार ओपी भार्गव ने बताया कि महाराजा साहब घाटीगांव और टिगरा क्षेत्र में पाई जाने वाली और विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी सोन चिरैया के रखरखाव और संरक्षण के लिए प्रयासरत हैं। महाराजा के प्राइवेट सेक्रेटरी भार्गव ने मुझे इसी विषय पर सुझाव देने के लिए महाराजा से भेंट करवाई। मैंने महाराजा को वर्तमान स्थिति और भविष्य की संभावनाओं के संबंध में चर्चा कर कुछ आवश्यक सुझाव दिए।
परंपरा तोड़कर जब एक सीनियर अधिकारी अधीनस्थ को विदा करने पहुंचे
ग्वालियर फॉरेस्ट सर्कल में कंजरवेटर के पद पर एसबी गुप्ता की पदस्थापना हुई। उनके पिता हंसराज गुप्ता सीपी एंड बरार के समय नागपुर में चीफ इंजीनियर के पद पर रहे थे। एसबी गुप्ता सरल और सादगीपूर्ण व्यक्तित्व के धनी थे। उनके भीतर मनुष्यता कूट-कूटकर भरी हुई थी। वे मुझसे नौकरी में 4-5 वर्ष वरिष्ठ थे। जब ग्वालियर से मेरा ट्रांसफर हुआ तब वे ग्वालियर स्टेशन में मुझे और परिवार को विदाई देने स्वयं पहुंचे। संभवत: ये पहली घटना रही होगी जब एक वरिष्ठ अधिकारी अपने जूनियर अधिकारी के ट्रांसफर होने पर उसे विदा करने स्टेशन पहुंचा था। इस प्रकार की कभी कोई परंपरा भी नहीं रही थी और ना ही वर्तमान में है। एसबी गुप्ता ने अपने इस कृत्य से मेरा और परिवार का दिल जीत लिया।
एक बेहतर मनुष्य की त्रासदी
एक बेहतर मनुष्य में पहचान रखने वाले एसबी गुप्ता के साथ हुई एक त्रासदी का जिक्र करना यहां जरूरी हो जाता है। उनकी पुत्री का सिलेक्शन एमबीबीएस कोर्स करने के लिए मेडिकल कॉलेज में एडमिशन हो गया। जब वो हॉस्टल में रहकर प्रथम वर्ष में अध्ययनरत थी, तब सीनियर्स की रैगिंग के कारण उसे मेडिकल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। हॉस्टल में उसकी रैगिंग सीनियर लड़कियां लेती रहतीं। इस वजह से गुप्ता जी की पुत्री परेशान रहती थी। एक दिन तो उस समय हद हो गई जब सीनियर लड़कियों ने रात को 2 बजे उसे टूटी चप्पल देते हुए कहा कि अभी इसकी मरम्मत करवाकर लाओ। इस तरह की रैगिंग से परेशान होकर वो तनाव में आ गई। उसने निश्चय किया कि अब मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस का कोर्स नहीं करेगी। गुप्ता जी को विवश होकर उसे मेडिकल कॉलेज से निकलवाना पड़ा। उनकी पुत्री ने मजबूरन आर्ट्स विषय लेकर अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी की।
एक त्रासदी पुत्री के साथ घटित होते हुए बची
कुछ इसी तरह की एक त्रासदी मेरी पुत्री के साथ घटित होते-होते बची। ग्वालियर में मेरी पुत्री ने 11वीं की बोर्ड परीक्षा दी। हमारे पड़ोसी राज्य शासन के जनसम्पर्क विभाग में कार्यरत थे। उनके पास रिजल्ट की प्रति सबसे पहले पहुंचती थी। हम लोगों ने पुत्री का रोल नंबर देते हुए उनसे निवेदन किया कि जैसे ही रिजल्ट आए वे हम लोगों को उससे अवगत करवा दें। कुछ दिन बाद जैसे ही रिजल्ट घोषित हुआ पड़ोसी ने दुखी मन से हम लोगों को सूचित किया कि आप की बेटी का नाम रिजल्ट में आया ही नहीं और वो फेल हो गई। हम लोग ये जानकारी मिलते ही दुखी हो गए और बेटी को ढांढस बंधाते हुए समझाइश देने लगे। बेटी मानने को तैयार ही नहीं थी कि वो परीक्षा में असफल हो गई। उसने कहा कि परीक्षा में उसके सभी पेपर अच्छे गए हैं और वो परीक्षा में असफल हो ही नहीं सकती। उसने इच्छा व्यक्त की कि वो स्वयं रिजल्ट देखकर संतुष्टि कर लेगी कि वास्तव में वो असफल हुई है कि नहीं। हम लोगों ने उसे रिजल्ट की बुकलेट लाकर दे दी। जल्दी-जल्दी बेटी ने उसे देखना शुरू किया जिसके बाद वो एकदम खुशी से चिल्लाते हुए झूम उठी क्योंकि उसका नाम और रोल नंबर प्रथम श्रेणी की लिस्ट में था। पड़ोसी को इस बात की सूचना दी गई और उनसे बेटी के असफल बताए जाने के बारे में पूछा। पड़ोसी ने बताया कि उन्होंने द्वितीय और तृतीय श्रेणी में उसका नाम ढूंढने का प्रयास किया जो उन्हें नहीं मिला। इस आधार पर उन्होंने बेटी के फेल होने की जानकारी हम लोगों को दे दी। कुछ क्षणों का दुख खुशी में तब्दील हो गया।
जंगल में कैंप के दौरान पहुंचे डाकू
ग्वालियर में फॉरेस्ट वर्किंग प्लान तैयार करने के लिए कई बार बीहड़ों के भीतर जाना पड़ता था। हम लोगों को हमेशा डाकुओं का भय बना रहता। उस समय डाकुओं का आतंक चरम पर था। एक बार हम लोगों की पार्टी गांव में कैंप कर रही थी। देर रात में वहां डाकुओं का एक समूह पहुंचा और लोगों से तहकीकात की कि अंदर कौन लोग सो रहे हैं। ग्रामीणों ने उन्हें जानकारी दी कि जंगल महकमे की सर्वे पार्टी के लोग हैं। ये सुनकर डाकू बिना कोई प्रतिक्रिया दिए आगे चले गए। सुबह इस बात की जानकारी हम लोगों को हुई। वैसे ग्वालियर पदस्थापना के दौरान हम लोगों का कभी डाकुओं से कोई सामना नहीं हुआ और हम सभी अपने काम को पूर्ण करने में सफल रहे।
फरशी से लदे ट्रक में यात्रा की मजबूरी
वर्किंग प्लान बनाने की अधिकांश अवधि में शासकीय जीप उपलब्ध ना होने के कारण ग्वालियर-शिवपुरी मार्ग पर स्थित मोहना के पास के जंगलों का भ्रमण और निरीक्षण के लिए मुझे ट्रक से आना-जाना पड़ता था। इस जंगल क्षेत्र में पत्थर की फरशी की खदानें थीं। ट्रक यहां चलते रहते थे। शिन्दे की छावनी स्थित एक मंदिर के पास ये ट्रक मुझे मिल जाते थे। हम लोग यहां पूरी पार्टी और सामान के साथ ट्रक में बैठकर मोहना के भीतरी जंगल क्षेत्र में पहुंचकर अपना काम निपटाते थे। जब ग्वालियर वापस आना होता तो फरशी से लदे हुए ट्रक में बैठकर आते। फरशी बहुत भारी होती हैं इसलिए फरशी से लदे ट्रक में बैठकर आने में डर लगना स्वाभाविक था। अत्याधिक वजन होने के कारण पूरे समय ट्रक दाएं-बाएं की ओर हिलता-डुलता रहता और चूं-चरर-मरर की आवाज आती रहती। दुर्घटना होने की स्थिति में अत्यधिक भार होने के कारण जो लोग दब जाते उनका बचना लगभग असंभव होता रहता था। अन्य कोई साधन उपलब्ध ना होने की वजह से हम लोगों का जंगल से ग्वालियर वापस आने का सहारा फरशी से लदा हुआ ट्रक ही हुआ करता था।
होम टाउन में पदस्थापना
ग्वालियर वर्किंग प्लान के मैंने 2 भाग तैयार किए। पहले भाग में 169 पृष्ठ और दूसरे भाग में 416 पृष्ठ बनाकर उचित माध्यम से मध्यप्रदेश शासन वन विभाग को प्रस्तुत किया। शासन ने कुछ ही माह बाद 8 अगस्त 1975 को इसकी स्वीकृति दे दी। उसी समय मेरा ट्रांसफर डीएफओ नॉर्थ डिवीजन सागर का हो गया। सागर ट्रांसफर होना मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था क्योंकि सागर मेरा मूल निवास स्थान था। शासकीय नियमों के अनुसार मूल निवास स्थान या होम टाउन में किसी शासकीय अधिकारी की पदस्थाना सामान्यत: नहीं की जाती। उसी समय मध्यप्रदेश के चीफ कंजरवेटर फॉरेस्ट केएन मिश्रा ग्वालियर दौरे पर आए। मैंने उनसे निवेदन किया कि मेरा ट्रांसफर मेरे होम टाउन सागर का किया गया है, जो शासकीय नियमों के विपरीत है। मैंने निवेदन किया कि उचित समझें तो किसी दूसरे स्थान पर मेरा ट्रांसफर कर दिया जाए। मिश्रा साहब ने कहा कि कई अधिकारी अपने मूल निवास स्थान पर पदस्थ रहते हुए काम कर रहे हैं, इसलिए आप भी बिना किसी संकोच के सागर जाकर अपने नए पद को संभालिए।
(लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं )