निर्दलीय सांसद : मौजूदगी दर्ज कराई, लेकिन इतिहास नहीं बना पाए

वर्ष 1975 में आपातकाल लगा और उसके हटने के बाद साल 1977 में चुनाव हुए। उस दौर में सभी विपक्षी पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई और अधिकतर नेता इसी दल से चुनाव लड़े, इसलिए मात्र 9 निर्दलीय ही चुनाव जीत पाए।

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Dr Rameshwar Dayal
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NIRDALIYA SANSAD
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NEW DELHI: देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था (democratic system ) में आम आदमी को भी चुनाव लड़ने का हक है। इसी का परिणाम यह हुआ है कि देश के किसी भी चुनाव में निर्दलीयों ( independents candidats ) की भागीदारी लगातार बनी रहती है। लोकसभा चुनाव ( loksabha election ) में निर्दलीय सांसद लगातार जीतते आ रहे हैं और वह अपनी ‘सुविधानुसार’ दूसरी पार्टियों को समर्थन भी देते रहे हैं। अगर इतिहास से लेकर वर्तमान तक के चुनावों की बात करें तो निर्दलीय लगातार चुनाव जीतकर अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहे हैं, लेकिन ऐसा दौर कभी नहीं आया कि उन्होंने कोई इतिहास ( history ) बना लिया हो। यानि इनके बलबूते कोई सरकार आराम से चली हो।

तब पार्टी से बड़े हुआ करते थे निर्दलीय उम्मीदवार

देश में आजादी के बाद पहला लोकसभा चुनाव वर्ष 1951-52 में हुआ था। यह वह दौर था जब नेताओं का अपना एक विशेष कद हुआ करता था और कई नेता तो पार्टी से ऊपर थे। इसी का परिणाम यह हुआ था कि उस दौर में 37 निर्दलीय सांसद चुनकर लोकसभा पहुंचे थे। दूसरी लोकसभा वर्ष 1957 में तो निर्दलीय सांसदों ने अपना जलवा और बढ़ा दिया था। तब के चुनाव में 42 निर्दलीय सांसद चुनकर लोकसभा पहुंचे और उन्होंने आराम से अपना कार्यकाल पूरा किया। इनमें देश के कई प्रमुख नेता शामिल थे, जो बाद में किसी दल में शामिल हो गए या उन्होंने अपनी कोई राजनीतिक पार्टी बना ली।

नेहरू की मौत के बाद निर्दलीय सांसदों की संख्या बढ़ी

देश में तीसरा लोकसभा चुनाव साल 1962 में हुआ था। यह वह चुनाव था, जब निर्दलीय सांसदों की संख्या में हैरतअंगेज कमी आई। तब मात्र 20 प्रत्याशी ही लोकसभा का मुंह देख पाए। साल 1967 में निर्दलीय सांसदों की संख्या फिर से बढ़ गई। असल में यह चुनाव प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौत के बाद का पहला चुनाव था। तब देश की राजनीति बिखराव के दौर में थी। इसलिए 35 निर्दलीय उम्मीदवारो को जीत हासिल हुई। यह वह दौर भी था, जब नेहरू की मौत के बाद अनेक नेता आगे बढ़ रहे थे और जनमानस में अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रहे थे। इसीलिए इस चुनाव में संसद में उनकी भागीदारी बढ़ गई।

जनता पार्टी के सामने निर्दलीय सिमट गए

वर्ष 1971 में पांचवी लोकसभा के चुनाव की बात करें तो इस चुनाव में सैंकड़ों निर्दलीयों ने भाग्य आजमाया लेकन जीत मात्र 14 को ही मिली। उसके बाद वर्ष 1975 में आपातकाल लगा और उसके हटने के बाद साल 1977 में चुनाव हुए। उस दौर में सभी विपक्षी पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई और अधिकतर नेता इसी दल से चुनाव लड़े, इसलिए मात्र 9 निर्दलीय ही चुनाव जीत पाए। वर्ष 1980 में सातवीं लोकसभा में भी मात्र 9 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीते। उसके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वर्ष 1984 में चुनाव हुआ। उस दौर में कांग्रेस के प्रत्याशियों ने जीतकर रिकॉर्ड बनाया। विपक्षी दल को करारी हार मिली लेकिन 13 निदर्लीय चुनाव में जीत ही गए। वर्ष 1989 के नौवें लोकसभा चुनाव में भी 12 निर्दलीय प्रत्याशी जीते, यानी उनकी मौजूदगी साधारण ही रही।

लगातार घट रही निर्दलीय सांसदों की संख्या

वर्ष 1991 के दसवें लोकसभा चुनाव में अधिकतर निर्दलीय प्रत्याशी औंधे मुंह गिरे। तब सिर्फ एक ही निर्दलीय का भाग्य जागा। यह अब तक के इतिहास में निर्दलीय सांसदों की सबसे कम संख्या थी। साल 1996 के चुनाव में उनकी संख्या में कुछ इजाफा हुआ और नौ निर्दलीय जीतकर लोकसभा पहुंचे। वर्ष 1998 की बारहवीं लोकसभा में निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या एक बार फिर से घटकर छह पर गई तो उसके बाद वर्ष 1999 के चुनाव में भी छह निर्दलीय ही सांसद बन पाए। 14वीं लोकसभा साल 2004 में हुए। तब नौ निर्दलीय उम्मीदवारों को जीत का स्वाद मिला। वर्ष 2009 में हुए 15वीं लोकसभा चुनाव में निर्दलीय सांसदों की संख्या नौ रही।  तो साल 2014 में 16वीं लोकसभा के चुनाव में इनकी संख्या घटकर मात्र तीन रह गई। वर्ष 2019 में 17वीं लोकसभा के चुनाव में तीन हजार से अधिक निर्दलीयों ने अपनी किस्मत आजमाई लेकिन चार ही सांसद बन पाए। अब आने वाले चुनाव में भी हजारों निर्दलीय अपनी किस्मत आजमाएंगे। देखना होगा कि इस बार कितने निर्दलीयों के भाग्य में जीत आएगी।

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